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________________ लोकभावना : एक अनुशीलन निज आतमा के भान बिन षट्द्रव्यमय इस लोक में । भ्रमरोग वश भव-भव भ्रमण करता रहा त्रैलोक्य में ॥ निज आतमा ही लोक है निज आतमा ही सार है । आनन्दजननी भावना का एक ही आधार है ॥ 'संयोग अनिंत्य हैं, अशरण हैं, असार है, अशुचि हैं, सुख-दुःख में साथ देनेवाले नहीं हैं; क्योंकि वे अपने आत्मा से अत्यन्त भिन्न हैं । ' आरंभिक छह भावनाओं में संयोगों के संदर्भ में इसप्रकार का चिन्तन करने के उपरान्त सातवीं आस्रवभावना में 'संयोग के लक्ष्य से आत्मा में ही उत्पन्न होनेवाले संयोगीभाव - चिद्विकार - मोह - राग-द्वेषरूप आस्रवभाव भी अनित्य हैं, अशरण हैं, अशुचि हैं, दुःखरूप हैं, दुःख के कारण भी हैं; अंतः हेय हैं और भगवान आत्मा नित्य है, परमपवित्र है, परमानन्दरूप है एवं परमानन्द का कारण भी है; अत: ध्येय है, श्रद्धेय है, आराध्य है, साध्य है एवं परम उपादेय भी है' इसप्रकार का चिन्तन किया गया है। इसप्रकार संयोग और संयोगी भावों से विरक्ति उत्पन्न कर संवर और निर्जरा भावना में पर और पर्यायों से भिन्न निज भगवान आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाली निर्मलपर्यायरूप शुद्धि और शुद्धि की वृद्धि की उपादेयता का चिन्तन किया गया; क्योंकि शुद्धि की उत्पत्ति व स्थितिरूप संवर तथा वृद्धिरूप निर्जरा ही अनन्तसुखरूप मोक्ष प्रगट होने के साक्षात् कारण हैं । इसप्रकार ज्ञेयरूप संयोग, हेयरूप आस्रवभाव एवं उपादेयरूप संवरनिर्जरा के सम्यक् चिन्तन के उपरान्त अब लोकभावना में षट्द्रव्यमयी लोक के स्वरूप पर विचार करते हैं ।
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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