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________________ १३८ लोकभावना : एक अनुशीलन निष्काम है निष्क्रोध है निर्मान है निर्मोह है। निर्द्वन्द्व है निर्दण्ड है निर्ग्रन्थ है निर्दोष है ॥ निर्मूढ है नीराग है आलोक है चिल्लोक है। जिसमें झलकते लोक सब वह आतमा ही लोक है ॥३॥ अपना आत्मा ही काम, क्रोध, मान और मोह से रहित है। एक आत्मा ही निर्द्वन्द्व है, निर्दण्ड है, निर्ग्रन्थ और निर्दोष है। मिथ्यात्व और राग रहित भी वही है, प्रकाशस्वरूप चैतन्यलोक भी वही है। यदि गहराई से विचार किया जाये तो जिसमें सम्पूर्ण लोक झलकते हैं, वह ज्ञान-स्वभावी आत्मा ही वास्तविक लोक है। निज आतमा ही लोक है निज आतमा ही सार है। आनन्दजननी भावना का एक ही आधार है ॥ यह जानना पहिचानना ही भावना का सार है। ध्रुवधाम की आराधना आराधना का सार है ॥४॥ अपना आत्मा ही लोक है और अपना आत्मा ही सारभूत पदार्थ है। आनन्द को उत्पन्न करनेवाली इस लोकभावना के चिन्तन का एकमात्र आधार निज भगवान आत्मा ही है। यह जानना-पहिचानना ही लोकभावना के चिन्तन का सम्पूर्ण सार है और ध्रुवधाम निज भगवान आत्मा की आराधना ही आराधना का सार है। मेरी भावना भाई! अनन्त शान्ति और सुख प्राप्त करने का तो एकमात्र यही मार्ग है। अतः मेरी तो यही भावना है कि यह आध्यात्मिक परमसत्य, त्रैकालिक परमसत्य, ज्ञानानन्दस्वभावी ध्रुव आत्मतत्व - जिन्हें खोजना है, वे खोजें; जानना है, वे जाने; पाना है, वे पावें। जिन्होंने खोज लिया हो, पा लिया हो; वे उसी में जम जावें, रम जावें, समा जावें और अनन्तसुखी हों, शान्त हों। - सत्य की खोज, पृष्ठ २५२
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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