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________________ बारहभावना : एक अनुशीलन १३५ साधुपुरुषों को दर्शन - ज्ञान - चारित्र का नित्य सेवन करना चाहिए; क्योंकि. निश्चय से तीनों को आत्मा ही जानो।" वस्तुत: बात यह है कि उक्त कथनों में मात्र निश्चय - व्यवहार का कथनभेद है, क्रियात्मक अन्तर रंचमात्र भी नहीं है; क्योंकि आत्मा की आराधना का नाम ही दर्शन - ज्ञान - चारित्र है । अत: चाहे ऐसा कहो कि आत्मा की आराधना करो या यह कहो कि दर्शन - ज्ञान - चारित्र का सेवन करो एक ही बात है । - उक्त गाथा की टीका लिखते हुए आचार्य अमृतचन्द्र इस बात को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "यह आत्मा जिस भाव से साध्य तथा साधन हो, उस भाव से ही नित्य सेवन करने योग्य है - इसप्रकार स्वयं विचार करके दूसरों को व्यवहार से समझाते हैं कि साधु पुरुष को दर्शन ज्ञान- चारित्र सदा सेवन करने योग्य हैं; किन्तु परमार्थ से देखा जाय तो ये तीनों एक आत्मा ही हैं; क्योंकि ये आत्मा से अन्य वस्तु नहीं हैं। अतः यह स्वतः सिद्ध है कि एक आत्मा ही सेवन करने योग्य है ।" आचार्य अमृतचन्द्र के उक्त कथन में एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि ज्ञानीजन स्वयं तो ऐसा विचार करते हैं कि सर्वप्रकार से एक आत्मा ही नित्य सेवन करने योग्य है; किन्तु इसी बात को दूसरों को इसप्रकार समझाते हैं कि दर्शन - ज्ञान - चारित्र ही सदा सेवन करने योग्य हैं। इस कथन के रहस्य को न समझ पाने के कारण कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि यह क्या बात हुई? क्या मुक्ति के मार्ग में भी 'हाथी के दाँत खाने के और, दिखाने के और' वाली बात चलती है ? क्या आचार्यदेव अपने लिए तो एक आत्मा ही सेवन योग्य मानते हैं और दूसरों के लिए दर्शन - ज्ञान - चारित्र के सेवन करने का उपदेश देते हैं ? पर बात ऐसी नहीं है; क्योंकि जिसे निश्चयनय से आत्मा का सेवन कहते हैं, उसे ही व्यवहारनय से दर्शन - ज्ञान - चारित्र का सेवन कहा जाता है । स्वयं का निश्चय निश्चयरूप और उपदेश व्यवहाररूप होने से ही इसप्रकार का प्रयोग हुआ है; मूलतः दोनों कथनों में कोई अन्तर नहीं है, एक ही बात है ।
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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