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________________ १३४ निर्जराभावना : एक अनुशीलन तात्पर्य यह है कि जमने योग्य, रमने योग्य, अनुभव करने योग्य, ध्यान करने योग्य और विहार करने योग्य एकमात्र मोक्षमार्गरूप संवर और निर्जरा तत्त्व ही हैं। इसी बात को आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार कहते हैं - "एको मोक्षपथो य एष नियतो दृग्ज्ञप्तिवृत्त्यात्मकस्तत्रैव स्थितिमेति यस्तमनिशं ध्यायेच्च तं चेतति । तस्मिन्नेव निरन्तरं विहरति द्रव्यांतराण्यस्पृशन् सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विंदति ॥ दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक एक ही मोक्षमार्ग है। जो पुरुष (पुरुषार्थी जीव) उक्त मोक्षमार्ग (मोक्षमार्ग के आधारभूत शुद्धात्मा) में ही स्थिर रहता है, निरन्तर उसी का ध्यान करता है, उसी को चेतता है, उसी का अनुभव करता है, अन्य द्रव्यों का स्पर्श भी न करता हुआ निरन्तर उसी में विहार करता है; वह पुरुष नित्योदित समयसार (शुद्धात्मा) को अल्पकाल में अवश्य ही प्राप्त करता है।" यहाँ एक प्रश्न संभव है कि संवरभावना में तो यह कहा गया था कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के मोक्षमार्गरूप निर्मलभाव भी ध्येय नहीं हैं, श्रद्धेय नहीं हैं, परमज्ञेय भी नहीं हैं, आराध्य भी नहीं हैं; आराध्य तो अनंत गुणों का अखण्ड पिण्ड एक चैतन्यस्वभावी निजात्मतत्त्व ही है और यहाँ यह कहा जा रहा है कि तू अपने को मोक्षमार्ग में स्थापित कर, उसी का अनुभव कर, उसी का ध्यान कर, उसी में निरन्तर विहार कर, अन्य द्रव्यों में विहार मत कर। भाई! दोनों कथनों में कोई विरोध नहीं है, दोनों का भाव एक ही है। उक्त सन्दर्भ में समयसार की निम्नांकित गाथा मननीय है - "दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं । ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो ॥१६॥ १. समयसार, कलश २४०
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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