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________________ १२० संवरभावना : एक अनुशीलन द्रव्यास्रव व भावास्रव के अभावपूर्वक जिन्होंने द्रव्य संवर व भाव संवर प्राप्त किया है; उन्हीं ने सुख देखा है अर्थात् सुख प्राप्त किया है।" उक्त छन्द में आत्मानुभव को ही संवर कहा गया है। आत्मानुभव या आत्मानुभव की भावना ही वास्तविक संवरभावना है। आत्मानुभव भेदविज्ञानपूर्वक होता है; अतः आत्मानुभव के साथ भेदविज्ञान की भावना भी संवरभावना में भरपूर की जाती है और विशेषरूप से की जानी चाहिए। आचार्य अमृतचन्द्र तो यहाँ तक कहते हैं - "संपद्यते संवर एष साक्षाच्छुद्धात्मतत्त्वस्य किलोपलम्भात्। स भेदविज्ञानत एव तस्मात् तद्भेदविज्ञानमतीव भाव्यम्॥ शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धि से ही साक्षात् संवर होता है और शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धि भेदविज्ञान से ही होती है। इसलिए वह भेदविज्ञान अत्यन्त भाने योग्य है - भावना करने योग्य है।" और भी देखिए - "भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥ आजतक जितने भी जीव सिद्ध दशा को प्राप्त हुए हैं, वे सब भेद-विज्ञान से ही हुए हैं और जो जीव संसार में बंधे हैं, कर्मों से बँधे हैं; वे सब इस भेदविज्ञान के अभाव से ही बँधे हुए हैं।" संवर की महिमा बताते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं - "भेदविज्ञान कला प्रगटै, तब शुद्धस्वभाव लहै अपना ही। राग-द्वेष-विमोह सबहि गल जाँय इमै दुठ कर्म रुकाहीं । उज्ज्वल ज्ञान प्रकाश करै बहु तोष धरै परमातम माहीं। यों मुनिराज भली विधि धारतु केवल पाय सुखी शिव जाहीं ॥ १. समयसार, कलश १२९ २. समयसार, कलश १३१ ३. समयसार, पृष्ठ ३१८
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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