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________________ बारहभावना : एक अनुशीलन ११७ दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उक्त छन्दों में संवर को 'सुखमय' और 'सुखदाय' कहा गया है। ध्यान रहे आस्रव का निरोध संवर है। तात्पर्य यह है कि संवर आस्रव की अभावपूर्वक उत्पन्न होनेवाली स्थिति है, दशा है, पर्याय है। - यह बात आरम्भ में ही स्पष्ट हो चुकी है। इसप्रकार स्पष्ट है कि आस्रव और संवर परस्पर विरोधी भाव हैं; क्योंकि आस्रव दुःखमय और संवर सुखमय, आस्रव दुःखदायक अर्थात् दुःख का कारण है और संवर सुखदायक अर्थात् सुख का कारण है। इसकारण संवर आस्रव का प्रतिद्वन्द्वी है, निषेधक है; उसका अभाव करके उत्पन्न होनेवाला पराक्रमी सज्जनोत्तम योद्धा है, अनन्त आनन्ददायक है, वन्दनीय है, अभिनन्दनीय है। संवर का वेष धारण किये सम्यग्ज्ञान की वन्दना करते हुए पण्डित बनारसीदासजी लिखते हैं - "आतम कौ अहित अध्यातम रहित ऐसो, आस्त्रव महातम अखण्ड अंडवत है। ताको विसतार गिलिबे कौ परगट भयौ, ब्रह्मड को विकास ब्रहमंडवत है॥ जामैं सब रूप जो सब में सब रूप सौं पै, सबनि सौं अलिप्त आकास-खंडवत है । सोहै ग्यानभान सुद्ध संवर को भेस धरै, ताकी रुचि-रेख कौं हमारी दण्डवत है ॥ अध्यात्म (आत्मज्ञान) से रहित, आत्मा का अहित करनेवाला आस्रवभाव महा अन्धकार अखण्ड अण्डे के समान जगत को घेरे हुए है। उसके विस्तार को समाप्त करने के लिए या सीमित करने के लिए जग-विकासी सूर्य के समान जिसका प्रकाश है और जिसमें सब पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं अथवा वह स्वयं उन सब पदार्थों के आकाररूप होता है, फिर भी आकाश के प्रदेशों के समान उनसे अलिप्त रहता है। शुद्ध संवर का वेष धारण किए वह ज्ञानरूपी सूर्य शोभायमान हो रहा है, उसकी प्रभा को हमारा अष्टांग नमस्कार (दण्डवत) है।" १. समयसार नाटक : संवर द्वार, छन्द २
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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