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________________ ९८ आस्रवभावना : एक अनुशीलन इस भेद से अनभिज्ञ ही रहते सदा बहिरातमा । जो जानते इस भेद को वे ही विवेकी आतमा ॥ यह जानकर पहिचानकर निज में जमे जो आतमा । वे भव्यजन बन जायेंगे पर्याय में परमातमा ॥ ३ ॥ बहिरात्मा जीव इस भेद से सदा अनभिज्ञ ही रहते हैं और जो इस भेद (रहस्य) को जानते हैं, वे ही विवेकीजीव हैं । इस रहस्य को जानकर, पहिचानकर जो आत्मा अपने में जम जायेंगे, रम जायेंगे; वे भव्यजन पर्याय में भी परमात्मा बन जायेंगे । हैं हेय आस्रवभाव सब श्रद्धेय निज शुद्धातमा । प्रिय ध्येय निश्चय ज्ञेय केवल श्रेय निज शुद्धातमा ॥ इस सत्य को पहिचानना ही भावना का सार है। ध्रुवधाम की आराधना आराधना का सार है ॥ ४ ॥ शुभाशुभभावरूप सम्पूर्ण आस्रवभाव हेय हैं और अपना शुद्धात्मा श्रद्धेय है, ध्येय है, निश्चय से ज्ञेय भी वही है; परमप्रिय एवं श्रेष्ठ भी वही है। इस सत्य को पहिचानना ही आस्रवभावना का सार है और ध्रुवधाम निज भगवान आत्मा की आराधना ही आराधना का सार है । सर्वज्ञता के निर्णय से क्रमबद्धपर्याय के निर्णय से मति व्यवस्थित हो जाती है, कर्त्तत्व का अहंकार गल जाता है, सहज ज्ञातादृष्टापने का पुरुषार्थ जागृत होता है, पर में फेरफार करने की बुद्धि समाप्त हो जाती है; इसकारण तत्संबंधी आकुलता - व्याकुलता भी चली जाती है, अतीन्द्रिय आनन्द प्रगट होने के साथ-साथ अनन्त शांति का अनुभव होता है । सर्वज्ञता के निर्णय और क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा से इतने लाभ तो तत्काल प्राप्त होते हैं। इसके पश्चात् जब वही आत्मा, आत्मा के आश्रय से वीतरागपरिणति की वृद्धि करता जाता है, तब एक समय यह भी आता है कि जब वह पूर्ण वीतरागता और सर्वज्ञता को स्वयं प्राप्त कर लेता है। आत्मा से परमात्मा बनने का यही मार्ग है। - क्रमबद्धपर्याय, पृष्ठ ६६-६७
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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