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________________ आस्त्रवभावना संयोगजा चिवृत्तियाँ भ्रमकूप आस्त्रवरूप हैं। दुखरूप हैं दुखकरण हैं अशरण मलिन जड़रूप हैं। संयोग विरहित आतमा पावन शरण चिद्रूप है। भ्रमरोगहर संतोषकर सुखकरण है सुखरूप है॥१॥ संयोग के आश्रय से उत्पन्न होनेवाली चैतन्य की राग-द्वेषरूप वृत्तियाँ भ्रम का कुआँ है, आस्रवभावरूप हैं, दुःखस्वरूप हैं, दुःख की कारण हैं, मलिन हैं, जड़ हैं, अशरंण हैं और संयोगों से रहित भगवान आत्मा परमपवित्र है, परमशरण है, चैतन्यरूप है, भ्रमरोग को हरण करनेवाला, संतोष करनेवाला, सुख करनेवाला और आनन्दरूप है। इस भेद से अनभिज्ञता मद मोह मदिरा पान है। इस भेद को पहिचानना ही आत्मा का भान है। इस भेद की अनभिज्ञता संसार का आधार है। इस भेद की नित भावना ही भवजलधि का पार है॥२॥ आत्मा और आस्रव के इस भेद को नहीं जानना मोहरूपी मदिरा का पान करना है और दोनों के भेद को पहिचान लेना ही आत्मा का सच्चा ज्ञान है। इस भेद को नहीं पहिचानना ही संसार का मूल कारण है। इस भेद की निरन्तर भावना ही संसार समुद्र का किनारा है।
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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