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________________ पद्मपुराण | य एक-साथ कई व्यक्तियों के जीवन पर प्रकाश डालता है, अतः इसे पुराण कहत हैं, जो पुण्य और पाप के फल को दिखाता है, जो बाधि अर्थात् रत्नत्रय और समाधि अर्थात् ध्यान का खजाना है, ऐसे प्रथमानुयोग को सम्यग्ज्ञान जानता है। ला कालो क विभक्ते युगपरिवृत्ते श्चतुर्गतीनां च | आदर्श मिव तथामतिरवैति करणानु यो गं च ।। लोक, अलोक के विभाग को, युगों के परिवर्तन को तथा चारों गतियों को दर्पण के समान झलकाने वाले करणानुयोग को सम्यग्ज्ञान जान लेता है। गृहमध्ये नगाराणां चारित्रात्पत्तिवृद्धि रक्षाम् । चरणानु यो ग समयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति || गृहस्थ और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के अंगभूत ऐसे चरणानुयोग शास्त्र को भी सम्यग्ज्ञान जानता है। जा गृहस्थ और मुनि क आचार को दिखलाता है, उसे चरणानुयाग कहत हैं। ये शास्त्र बतलाते हैं कि जीव किस बुरी तरह व्यसनों में, पापों में, अन्याय, अभक्ष्य में पड़ा हुआ है। फिर कैसे सच्चे दव, शास्त्र, गुरु का निमित्त पाकर तत्त्व के स्वरूप को जानता है और फिर क्रमशः किस प्रकार इन व्यसन, पाप, अभक्ष्य, अन्याय को छोड़कर मूलगुणों तथा उत्तर गुणों का बढ़ाता हुआ गृहस्थ धर्म का निर्वाह करता है। मुनिराज किस तरह 28 मूलगुणों को, 13 प्रकार के चारित्र को, 5 समिति, 3 गुप्ति, 6 आवश्यक, 22 परीषह जय, 12 भावनायें, 12 तप आदि को पालते हैं। दोनों के चारित्र की प्राथमिक उत्पत्ति, फिर अतीचारों को प्रायश्चित्त द्वारा दूर करते हुये उसकी बृद्धि, तथा व्रतों की रक्षार्थ भावनाओं आदि द्वारा श्रावक व मुनि अपने चारित्र की रक्षा करते हुये, अन्त में (765)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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