SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 766
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कि “है तो मेरा ही', तो फिर हमारा जीवन बदलेगा नहीं। और यदि बाहर कुछ परिवर्तन दीख भी, तो भी वह यह लाया हुआ ही होगा, आया हुआ नहीं। लाया हुआ आचरण वास्तविक नहीं होता, उसके लिये निरन्तर चिन्ता रहती है। जैसा कि कोई स्त्री बहुत ज्यादा श्रृंगार करके जा रही है। वह चूंकि उसकी स्वाभाविक सुन्दरता नहीं, अतः उसे बार-बार दर्पण में अपना मुँह निहारना पड़ता है कि कहीं कुछ बिगड़ तो नहीं गया, निरन्तर उसे उसकी ही चिन्ता बनी रहती है। परन्तु जो स्त्री प्राकृतिक सुन्दर होती है, उसे अपने रूप को देखने की चिंता नहीं होती। उसी प्रकार ज्ञानी का आचरण ऊपर से ओढ़ा हुआ नहीं होता, उसे बार-बार यह देखना नहीं पड़ता कि कहीं कोई गलती तो नहीं हो रही है | सम्यग्दर्शन के आठ अंग उसे पालने पड़ते हों, ऐसा नहीं, वरन् वे स्वतः ही पलत हैं। वह बाहरी पर-पदार्थों में सुख-दुःख नहीं मानता, ऐसा नहीं, बल्कि उसके पर-पदार्थों में सुख-दुःख का भाव पैदा ही नहीं होता। ज्ञानी जीव को कभी भी स्व व पर में भ्रम नहीं होता। हो सकता है कि ज्ञानी मुँह से शरीर का अपना कहे, स्त्री-पुत्र आदि को अपना कहे, परन्तु ऐसा कहते हुए भी उसे वे 'पर' ही दिखाई दे रहे हैं और अज्ञानी मुँह से चाहे उन्हें 'पर' कहे, कि मेरे नहीं, परन्तु उसे व अपने ही दिखाई देत हैं। लोक में इसके उदाहरण भी पाये जाते हैं। हम दूसरे के बच्चे को लेकर जा रहे हैं, रास्ते में किसी ने पूछा-किसका बच्चा है? हमने कहा- अपना ही है। उस बच्चे को अपना कह रहे हैं, परन्तु वह 'अपना' कहने भर को ही है, दिखाई वह दूसर का ही दे रहा है। ऐसे ही हमारा कोई अपना बच्चा है, उससे खूब लड़ाई-झगड़ा हो (751
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy