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________________ उनका कितना प्रताप था, कितना धन, वैभव था। महायुद्ध हुआ, जो इतिहास में महाभारत के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। उसमें कितना संहार हुआ, अन्त में रहा क्या? कौरवों के वंश में कोई नहीं बचा और होगा भी कोई ता पता नहीं। यहाँ पांडवों को वैराग्य हो गया । वह सारा धन जहाँ का तहाँ ही पड़ा रहा | इतनी लड़ाई लड़ने के बाद न कौरवों को उसका मजा आया और न पांडवों को । हाँ, आनन्द उन पांडवों को अपनी शुद्धता और आत्मसेवा के कारण आया | वे निर्वाण पधारे | यह परिग्रह, इसकी तृष्णा जीव को शल्य की तरह दुःख देती है। जैसे पैर में काँटा चुभ जाये तो वह वेदना पहुँचाता है। इसी प्रकार तृष्णा का परिणाम भी आ जाये तो वह इस शल्य की तरह चुभो-चुभोकर दुःख देता है। भैया! कहाँ सुख ढूंढते हो, किस जगह सुख है, यह मोह की नींद का एक स्वप्न है। सब कुछ विखर जायेगा | कोई भी यहाँ न रहेगा। सच बात तो यह है कि जिसने इस जगत के समस्त समागमों को असार समझ लिया है, कहीं सार नहीं है, कहीं सुख नहीं है-यों निश्चय कर लिया है, ऐसा पुरुष ही पाप को छोड़कर, सच्च धर्म के मार्ग पर आग बढ़ता है | ''आत्मानु शासन ग्रंथ'' में आचार्य गुणभद्र महाराज ने लिखा है पापद् दुःख धर्मात्सुखामिति, सर्वजन सुप्रसिद्धमिदम् । तस्माद्विहाय पापं चरतु. सुखार्थी सदा धर्मम् ।। हे सुखार्थीजनो! समस्तजन इस बात को समझते हैं और सबके यहाँ यह बात सुप्रसिद्ध है कि पाप स दुःख होता है और धर्म से सुख होता है। इस कारण पाप का त्याग करक, सदा धर्म का आचरण करो। __ परिग्रह में आसक्त रहना, संसार मार्ग है और परिग्रह से उपेक्षा करना तथा शुद्ध ज्ञान स्वरूप को निहारना, मोक्षमार्ग है | दा ही रास्ते (719
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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