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________________ पुण्यस्य फल मिच्छन्ति, पुण्यं न च्छन्ति मानवः । फलं पापस्य ने च्छन्ति, पापं कुर्वन्ति यत्नतः ।। __मनुष्य पुण्य के फल को तो चाहता है, पर पुण्य करना नहीं चाहता। पाप का फल नहीं चाहता, लेकिन दिन-रात पाप में लगा रहता है। परंतु पाप की बीज बोकर, कोई भी पुण्य की फसल नहीं काट सकता। तीनों लोकों के सभी जीव सुख चाहते हैं और दुःख से डरते हैं। परंतु सुख के कारणभूत धार्मिक कार्यों से विमुख रहते हुये, दुःख के कारणभूत पाप कार्यों में ही लगे रहते हैं। पर ध्यान रखना, आचार्यों का कहना है-''नायुक्तं क्षीयते कर्म'' आपने अगर कोई पाप किया है तो कई कर्म ऐसे होते है कि वह बिना भोग नष्ट नहीं हाते । कहावत है-''पाप और पारा कभी पचता नहीं ।' आदिनाथ भगवान के जीव ने कभी पूर्व पर्याय में किसी बैल के मुँह पर कुछ देर के लिये मसिका बांधी थी. जिसस ऐसा अन्तराय बंध गया कि छ: महीने से भी अधिक समय तक उन्हें आहार उपलब्ध नहीं हो सका। सीता जी ने कभी पूर्व पर्याय में किसी निर्दोष निग्रंथ मुनिराज पर लांछन लगाया था, उसका परिणाम यह निकला कि सीता जी को स्वयं निर्दोष होन पर भी लांछित होना पड़ा। पिछले भव में किये हुये कर्मों के फलस्वरूप अंजना सती को 22 वर्ष तक पति का वियोग सहना पड़ा और घोर विपत्ति में जा अनक कष्ट सहन करना पड़े । व्यक्ति पाप कार्यों को करक परिग्रह संचय करना चाहता है | पंरतु शान्ति की प्राप्ति परिग्रह संचय से नहीं, अपने अविकार सहज ज्ञानस्वरूप परमात्मतत्त्व की आराधना स प्राप्त होती है। मोह से उत्पन्न दुःख कभी भी मोहभरी बातां से दूर नहीं हो सकगा। कौरव और पांडवों का जब भारत में शासन था, उस समय (718)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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