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________________ के दर्शन करने से अपना भूला हुआ स्वभाव याद आ जाता है | भगवान की मूर्ति दर्पण की तरह है, जिसको देखने से हमारे मन की, आत्मा की कालिमा दिखाई दने लगती है, जिस देखते ही हम उसे साफ करने का पुरुषार्थ करने लगते हैं | भगवान की स्तुति / गुणानुवाद करन से उनके जैस गुण प्राप्त करने की रुचि पैदा हो जाती है। उनका गुण वीतरागता है। उसकी प्राप्ति की भावना और रुचि जीव की संसार-रुचि को घटाने वाली है। भगवान की मूर्ति तो शब्दों का उच्चारण किय बिना, साक्षात् मोक्षमार्ग का उपदेश दे रही है कि अगर आनन्द प्राप्त करना है, तो मेरी तरह शरीरादि स भिन्न निजस्वभाव को जानो, उसमें रुचि जागृत करा और उसी में लीन हो जाआ, तो तुम राग-द्वेष से रहित होकर परमानन्दमय हा जाओगे | ___ भगवान की भक्ति करने से भक्त के परिणाम निर्मल हो जाते हैं। साधक जब भगवान का गुणानुवाद करते हैं अथवा दर्शन करते हैं, तब उनके परिणामों में विशुद्धता आती है। उससे पाप प्रकृतियाँ बदल कर पुण्यरूप हो जाती हैं। अतः पाप का फल न मिलकर, पुण्य का फल मिलता है अथवा यदि पाप तीव्र हो तो कम होकर उदय में आता है। फिर भी, साधक का दृष्टि-कोण तो वीतरागता की प्राप्ति का, रागद्वेष के नाश का अथवा भेद-विज्ञान का ही रहना चाहिये, पुण्य बन्ध तो स्वतः ही हो जाता है। जैसे किसान अनाज के लिए खेती करता है, घास-फूस तो साथ ही अपने आप हो जाते हैं। लेकिन यदि वह घास-फूस के लिये खेती करे, तब उसके अनाज तो होगा ही नहीं, घास-फूस होना भी कठिन है। वैसे ही वीतरागता और भेद विज्ञान के लिये जो भगवान के दर्शनादि करेगा, उसके मोक्षमार्ग के साथ पुण्य बन्ध हा ही जायेगा। भगवान का दर्शन, पूजन तो वीतरागता का ही साधन है | अतः दर्शन-स्तुति, पूजा-भक्ति 696)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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