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________________ अभाव हो जाता है, उसकी शान्ति, उसका आनन्द समस्त सीमायें तोड़कर अनन्त हो जाता है, वह आत्मा पूर्णता को प्राप्त कर लेता है, परमात्मा हो जाता है। परमात्मा उस ज्ञानपुंज का नाम है, जिसमें समस्त ला कालोक झलक रहा है और जो अपने सहज शाश्वत आनन्द में मग्न हो रहे हैं | ऐसे वीतराग निर्दोष परमात्मा की भक्ति करने स पापों का क्षय व पुण्य का संचय होता है। जिनन्द्र भगवान के दर्शन करने से आत्मा की रुची उत्पन्न हो जाती है | षट्-खण्डागम सूत्र में मनुष्य के प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के तीन कारण कहे हैं-जाति स्मरण, धर्म श्रवण तथा जिनप्रतिमा का दर्शन | इनके द्वारा प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन उत्पन्न हाता है। मणुस्सा मिच्छाइट्ठी कदिहि कारण हिं पढमसम्मत्त मुप्पा-ति? तीहि कारणे हि पढम सम्मत्त मुप्पादें ति, केई जाईस्संरा, के ई सोउण, के ईं जिणबिंव दट्टण || 29-30 | || समस्त दुःख मिटाने का उपाय सम्यग्ज्ञान है, भेदविज्ञान है | सम्यग्ज्ञानी पुरुष अन्तरंग में यह विश्वास रखता है कि जैसा भगवान का स्वरूप है, वैसा ही मेरा स्वरूप है। मैं अमुक नहीं हूँ, यह मेरी पोजीशन नहीं है, मैं देह से भिन्न चैतन्य स्वरूपी आत्मा हूँ | इतनी अन्तरंग में श्रद्धा होने से दुःखों में बहुत कमी आ जाती है। जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा के दर्शन करते समय विचार करना चाहिये कि जिस प्रकार से प्रभु अपने आपमें लीन हैं, वैसे ही यदि मैं भी शरीरादि से भिन्न अपने स्वाभाव में लीन हा जाऊँ, तो इसी प्रकार के अनन्तसुख को प्राप्त कर सकता हूँ एवं संसार के दुःखों से और जन्म-मरण से रहित हो सकता हूँ | जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा (695)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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