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________________ पहुँच गये | वेदव्यास जी ने आतिथ्य सत्कार करके शुक्राचार्य जी को अपने पास आसन दिया और आगमन का कारण पूछा। शुक्राचार्य ने कहा - "अपने यह स्मृति वाक्य जो मन की चंचलता के विषय में लिखा है - "माता स्वरत्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो यवेत् । बलवा निन्द्रियग्रामः विद्वांसमपि कर्षति ।।" कहिये, इसका क्या तात्पर्य है | व्यासजी ने कहा – तात्पर्य स्पष्ट है, “माता, भगिनी वा पुत्री क साथ एकान्त में नहीं बैठना चाहिये । क्यों कि इन्द्रिय समूह (मन) बड़ा प्रबल है, यह विद्वानों को भी अपनी ओर खींच लेता है। शुक्राचार्य – हा कष्ट !! आप जैसे योगीश्वरों का भी इतना दुर्बल विचार, मन पर इतना अविश्वास | मन कितना भी चंचल क्यो न हो, क्या वह माता-पुत्री-भगिनी की ओर चलायमान होगा? कदापि नहीं। व्यास - क्या आपक विचार में यह स्मृति वाक्य असत्य है? शुक्राचार्य - असत्य नहीं तो अशुद्ध और व्यर्थ तो अवश्य है। व्यास - आप इस विषय को एक बार और विचार कीजिये, देखिये उर्वशी, रम्भा आदि के कारण बड़े-बड़े योगियों का मन चलायमान हा गया था। इस प्रकार की चर्चा कर तथा “यह सूत्र अशुद्ध हैं एसा निश्चय कर शुक्राचार्य अपने आश्रम की ओर लौट गये । एक दिन अमावस्या की अंधरी रात थी (जिस समय) शुक्राचार्य प्रकृति के भीषण स्वरूप को देख रहे थे। अचानक एक ऐसी दुःख भरी आवाज आयी, जिसने आचार्य का ध्यान अपनी आर खींच लिया । उन्हें लगा यह आर्तनाद किसी पति-परित्यक्ता, वियोगिनी कुल-वधु (658)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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