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________________ की आत्मा का चिन्तन करते हैं। संसार में हमारा कोई नहीं है, मात्र हमारा संयाग है, साथ नहीं है। संसार में ममत्व के कारण से, पर-पदार्थों पर हमारी मूर्छा चली जाती है, मूर्छा ही परिग्रह कहलाती है। परमाणु के बराबर अगर यह पदार्थ मेरा है, ऐसा विचार आता है, तो वह आपका परिग्रह है, भले ही आप उसको भोगो अथवा नहीं भोगो। आप रहते तो एक कमरे में हैं, लेकिन मूर्छा आपकी सारे संसार में रहती है, और यही मूर्छा आपक लिये आकिंचन्यता को प्रकट नहीं करने देती है | इसलिये यह मेरा है, इस प्रकार का विचार आप मत करो, यह तो आप का संयोग है, और संयोग नियम से वियोग को प्राप्त होता है। यह एक अकाट्य सिद्धांत है कि जिस-जिस का संयोग होता है, उस-उस का वियाग जरूर होता है। एक व्यक्ति मेले में पहुँच गया और मेले में पहुँच कर के बड़ा खुश हो रहा था, बहुत सारे लोग उसका मिले, दस दिन वहीं पर रहा। दस दिन बाद मेला समाप्त हो गया और सारे-के-सारे लोग अपने-अपने गाँव चल गये, वह व्यक्ति वहीं पर अकेले खड़ा रहा। मेले में दस दिन रहकर के उसन बहुत राग किया, बहुत द्वेष किया। किसी को अपना माना, किसी को अपना नहीं माना | जब मेला समाप्त हो गया, तो सभी लोग उस व्यक्ति को छोड़कर अपने-अपने घर चले गये, उनमें से किसी ने भी उस व्यक्ति स यह नहीं कहा कि भैया! मरे साथ चलो, मेरे घर चलो | वह व्यक्ति वहीं पर खड़ा-खड़ा विचार कर रहा था, मैं तो अभी तक झूठी कल्पना कर रहा था कि ये मेरे हैं, लेकिन ये सारे मेरे को छोड़कर चले गये | यह सोचकर वह वैराग्य को प्राप्त हो जाता है | संसार भी एक मेला है। इस मेले में ये सारी-की-सारी दुकानें लगी हुई हैं, जब समय होगा तो छोड़-छोड़ (583)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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