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________________ ___ मुक्ति क अभिलाषी मुनिराज, आकिंचन्य धर्म के धारी होते हैं। वे किंचित मात्र भी परिग्रह नहीं रखते । प्रत्येक गृहस्थ को भी अपनी शक्ति और आवश्यकतानुसार परिग्रह का परिमाण अवश्य कर लेना चाहिए। आचार्य समझाते हैं, ये संसारी प्राणी आज तक अपने आकिंचन्य स्वभाव को न समझ पाने के कारण पर-पदार्थों में ममत्व करके, उनका संग्रह करके व्यर्थ ही महान दुःखी हा रहे हैं। तनिक भी आकिंचन्य भावना भा लो दुःख नहीं मिटे तो कहना कि शास्त्रों में झूठ बात लिखी है। जो अपने में यह भावना भायेगा कि जगत में मेरा कुछ भी नहीं है, वह नियम से सुखी होगा, कभी भी उसको दुःख नहीं होगा। अतः इन सब वस्तुओं को बाह्य वस्तु जानकर इनसे राग हटाना चाहिय | जगत के समस्त पदार्थों से मैं जुदा हूँ, ये बाह्य पदार्थ स्पष्ट रूप से भिन्न दिख रहे हैं, फिर भी हम भिन्नता की श्रद्धा नहीं करते । जिनको जगत् में रिश्तेदार, नातेदार मानते हैं, वे भी हमसे भिन्न हैं | बस, उनसे अपने को जुदा समझो । धन है, वह भी प्रत्यक्ष भिन्न है, उसको भी भिन्न समझो । अपने शरीर से भी अपने आपको जुदा समझो | इसके बाद द्रव्य कर्मों, भाव कर्मों से भी अपने आपको जुदा समझो । अपने आप से, अपने आप को दुःख नहीं होता, परन्तु पर का संग होने से, दुःख पैदा होता है। जिसने भी एकत्व के रहस्य को समझ लिया, उसका नियम से कल्याण होता है | उसे मुक्ति की प्राप्ति होती है । नमिराय राजा की कथा आती है, उसे दाह-ज्वर हो गया था। उसका रोग दूर करने के लिये रानियाँ चन्दन घिस रही थीं। रानियों की चूड़ियों के खनकने की आवाज सुनकर, राजा बोला यह शार क्यों हो रहा है। मंत्री बोला, महाराज! आपका रोग दूर करने के (561)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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