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________________ मेरा शरीर है, मेरे स्त्री- पुत्र हैं, मकान वैभव आदि हैं, यह मिथ्या मान्यता ही संसार भ्रमण का कारण है । अपने आकिंचन्य स्वरूप को न समझना और पर - पदार्थों को अपना मानना, बस इसी का नाम है जगजाल में रुलना । मुक्ति का रास्ता और कोई दूसरा नहीं है । यही अपनी आत्मा का जैसा शुद्ध चैतन्य मात्र स्वरूप है, यदि वैसा माना जाये, बस यही मोक्ष का रास्ता है, मुक्ति का पथ यही है । आप धर्म पालन के लिये कितनी भी क्रियायें कर लो, किन्तु यदि पर द्रव्यों से भिन्न अपनी आत्मा का श्रद्धान व अनुभव नहीं हुआ तो धर्म पालन नहीं हुआ, शांति का मार्ग नहीं मिला मोक्ष का मार्ग नहीं पाया । धर्म एक होता है, धर्म पचासों नहीं होते । अपने धर्म से अर्थात् आत्मा से स्नेह करो । जगत में कहाँ भटक रहे हो? इन पर - पदार्थों से शरण नहीं मिलेगी, हर एक से धोखा मिलेगा, हर एक से बहकावा मिलेगा, शरण कहीं नहीं मिलेगी । यह परिग्रह ही समस्त अनर्था एवं दुःखों की जड़ है। इस परिग्रह को अपना मानना छोड़ देना, सब आपदाओं-विपदाओं को समाप्त कर देता है । जैसे बच्चे लोग एक कथानक कहा करते हैं। किसी जंगल में स्यार, स्यारनी थे । स्थारनी को गर्भ था, डिलेवरी का समय था । स्यार ने स्यारनी से शर के बिल में प्रसव वेदना को समाप्त करने के लिए कहा। बच्चे हो गये । स्यारनी को विधि समझा दी । स्यार ऊपर चट्टान पर बैठ गया । स्यारनी ने अपने बच्चों को समझा दिया कि जब कोई आवे तो रोने लगना । एक शेर आया। बच्चे रोने लगे । स्यार ने स्यारनी से पूछा बच्चे क्यों रोते हैं ? स्यारनी ने कहा कि बच्चे भूखे हैं, शेर को खाना चाहते हैं । शेर डर कर वहाँ से भाग गया । इस तरह से 10-20 शेर आए तो वे सब भी डरकर भाग गए। सब शेरों ने मिलकर एक मीटिंग की । सबने सोचा कि ऊपर चट्टान 549 -
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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