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________________ 2. 3. 4. कंजूस मनुष्य — • जो स्वयं खाते हैं, परन्तु दूसरों को नहीं देते । उदारचित्त मनुष्य - जो स्वयं भी खाते हैं, तथा दूसरों को भी देते हैं । दातार मनुष्य हैं । — जो स्वयं न खाने की अपेक्षा, दूसरों को देते दान नहीं देना और केवल धन का संग्रह-ही-संग्रह करना अशान्ति को निमंत्रण देना है। धन का संग्रह करना कितनी बड़ी अज्ञानता है। यह बात इस दृष्टान्त से स्पष्ट हो जाती है एक पंडित जी थे जो सदा परिग्रह में लिप्त रहते थे । वे ठीक से न खाते, न पहनते, दिन-रात पैसा इकट्ठा करके ब्याज पर साहूकार के यहाँ भेज देते । एक दिन पंडित जी विचार करने लगे कि मुझे पता लगाना चाहिये कि मेरा पैसा ठीक भी है या नहीं। पंडित जी सेठ जी के यहाँ पहुचते हैं और जाकर देखते हैं कि सेठ जी तो कोठी बंगले में खूब आनन्द से रह रहे हैं। किसी बात की कमी नहीं है । फिर सोचते हैं कि पैसा तो मेरा है और आनन्द सेठ जी ले रहे हैं । सेठ जी वहाँ पर नहीं थे। नौकरों पंडित जी के ठहरने का प्रबंध कर दिया। वे जानते थे कि इनके यहाँ से ही पैसा आता है । रात्रि में जब पंडित जी सो जाते हैं तो स्वप्न में लक्ष्मी कहती है कि आप कौन हैं, पंडित जी कहते हैं कि मैं तो पंडित हूँ । किन्तु आप कौन हैं, वह कहती है, मैं लक्ष्मी हूँ । पंडित जी कहते हैं कि तुम इनके यहाँ क्यों आती हो, लक्ष्मी बोली कि मैं इन सेठ जी की दासी हूँ, क्योंकि सेठजी परिग्रह से मोह न रखकर दान देते हैं । अब पंडित जी कहते हैं कि आप हमारे यहाँ क्यों नहीं आतीं । तब लक्ष्मी कहती है कि आप तो पैसे के मोही हैं, इसलिये मैं आपके पास नहीं आती । 537
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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