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________________ उनकी आँख खुली, तो सामने रास्ते पर एक चमकता हुआ हीरा दिखाई पड़ा। एक क्षण का तो उनका मन डोल गया। इतना वेश कीमती हीरा | वे हीरा की कीमत जानते थे। अपार सम्पत्ति और वैभव को छोड़कर आये थे। उस समय मरे पास यह एक हीरा और होता, ता मैं सबसे समृद्ध होता-एक क्षण का मन डोल गया, मुनि होने के बावजूद भी। अगले ही क्षण देखते हैं, कि एक घुड़सवार इधर से आया, दूसरा घुड़सवार उधर से आया, दोनों की नजर हीरे पर पड़ी। एक कह रहा है कि पहले मैंने देखा है हीरे को इसलिये हीरा मेरा है। दूसरा कह रहा है पहले मरी नजर पड़ी है हीरे पर, इसलिये हीरा मेरा है। दोनों की तलवारें निकल गईं। पलक झपकते ही देर ना लगी, दो मिनट में ही दोनों के सिर जमीन पर पड़ हैं। और हीरा ज्यों-का-त्यों जमीन पर पड़ा है | भर्तृहरि ये सब देखकर फिर ध्यान में लीन हो गये। सोचने लगे-जैसा मेरा मन डोल गया था, अगर मैं भी चूक गया हाता, तो मेरी भी यही दशा होने वाली थी| संस्कारों की ऐसी प्रबलता को हम संयम के माध्यम से आसानी से ताड़ सकते हैं | संसार का कितना भी बुरा संस्कार क्यों न हो यदि हम संकल्पित हो जात हैं, अपने जीवन में व्रत-नियम संयम को धारण कर लेत हैं तो हमारे बुरे संस्कार धीरे-धीरे नष्ट होना शुरू हो जाते हैं। यह संसार दुःखां की खान है। संसारी सुख खांड में लिपटा हुआ जहर है, तलवार की धार पर लगा हुआ मधु है। इनसे सच्चे सुख की प्राप्ति मानना ऐसा ही है जैस विष से भरे सर्प के मुख से अमृत झड़ने की आशा करना । जिस प्रकार हिरण यह भूल कर कि कस्तूरी उसकी अपनी नाभि में ही है, उसकी खोज में मारा-मारा फिरता है, उसी प्रकार जीव यह भूल कर कि अविनाशी सुख तो (353)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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