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________________ जब जीव को आत्मा और आत्मा से भिन्न वस्तु का ज्ञान हो जाता है, अर्थात् मैं शरीरादि से भिन्न अखण्ड, अविनाशी, शुद्धात्मतत्त्व हूँ, ये शरीरादि मेर नहीं हैं, न ही मैं इनका हूँ, तब उसे पर से भिन्न निज आत्मा की रुचि पैदा हो जाती है और संसार, शरीर, भोगों से अरुचि पैदा हो जाती है। और वह हमेशा आत्म सन्मुख रहने का पुरुषार्थ किया करता है | सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा का स्वरूप बताते हुये आचार्य योगीन्दु देव कहते हैं - जो कोई आत्मा और पर को भले प्रकार पहचानता है, तथा जो अपने आत्मा के स्वभाव को छोड़कर अन्य सब भावों को त्याग देता है, वही भेद विज्ञानी अन्तरात्मा है, वह अपने आप का अनुभव करता है और वह संसार स छूट जाता है | आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी समयसार में कहते हैं - अहमिक्को खलु सुद्धा दंसणणाण मइयो सदारूवी । ण वि अस्थि मज्झ किं चिवि अण्णं परमाणुमित्तं पि।। निश्चय से मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन ज्ञानमय हूँ, सदा अरूपी हूँ, और अन्य जो पर द्रव्य हैं वे किंचित् मात्र / अणु मात्र भी मेर नहीं हैं | शिवभूति मुनिराज को उनके गुरु ने पढ़ाया, पर उन्हें कुछ भी याद नहीं होता था, तब गुरु ने उन्हें ये 6 अक्षर पढ़ाय 'मारुष मातुष' | वे इन शब्दों को रटने लगे | इन शब्दों का अर्थ यह है कि रोष मत करो, तोष मत करो, अर्थात् राग-द्वेष मत करो, इससे ही सर्व सिद्धि होती है | कुछ समय बाद उनको यह भी शुद्ध याद न रहा, तब 'तुष मास' ऐसा पाठ रटन लगे | दोनों पदों के रू और मा भूल गये और 'तुष माष' ही याद रह गया। एक दिन वे यही रटते एवं विचारते हुए कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक स्त्री उड़द की दाल धो (300
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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