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________________ अस्यैवा भावतो बद्धा, बद्धा ये किल केचन ।। जो भी जीव आज तक बंधे हैं, व सभी बिना भेदविज्ञान से बंधे हैं और जितने भी जीव आज तक छूटे हैं, वे सभी भेद विज्ञान से ही छूटे हैं। शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न है, परन्तु माह के नशे के कारण यह संसारी प्राणी अपनी चैतन्य आत्मा को नहीं पहचानता और इस पुद्गल शरीर को ही मैं मान लेता है। वह सच्चे सुखनको पहचानकर इन्द्रिय-विषयों में ही सुख ढूंढ़ता रहता है और मृग मरीचिका के समान भटक-भटक कर अपनी अत्यन्त दुलर्भता से प्राप्त इस मनुष्य पर्याय को समाप्त कर देता है। परन्तु इसे रंचमात्र भी सुख की प्राप्ति नहीं होती और अन्त में यह जीव आर्तध्यान व रौद्र ध्यान स मरणकर तिर्यंच-नरक आदि खाटी योनियों में पहुँच जाता है। अपने स्वरूप को न समझ पाने के कारण उसका वर्तमान जीवन भी दुःखी व भविष्य का जीवन भी दुःखी रहता है | यदि सच्चा निराकुल सुख चाहिये हो तो स्व व पर के भेद को समझो । तू चेतन यह देह अचेतन, यह जड़ तू ज्ञानी । मिले अनादि यतन तें विछुड़े, ज्यों पय अरु पानी ।। तू चतन है, यह देह अचेतन है। यह शरीर जड़ है, तू ज्ञानी है, दोनों का अनादि काल से मेल बना हुआ है | पर रत्नत्रय के मार्ग पर चलकर दानों को पृथक-पृथक किया जा सकता है | ज्यों पय अरु पानी, यानी दूध और पानी को जिस तरह अलग-अलग किया जा सकता है, ऐसे ही शरीर से भिन्न इस आत्मा क संबंध को भी अलग-अलग किया जा सकता है। जन्म-जन्म के इस बंधन को भी दूर किया जा सकता है। भेद विज्ञान होते ही शरीर और आत्मा के (295
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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