SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होकर इतने बड़े महात्मा से बात कर रही है, इसका तो प्रायश्चित्त लेना पड़ेगा। अच्छा, बता क्या दान करना चाहती है ? वेश्या ने कहा- मैं अपनी सारी सम्पत्ति दान करना चाहती हूँ । साधु महाराज ने उसकी सारी सम्पत्ति लेकर एक दोहा पढ़ा और उसको आशीर्वाद दिया गंगाजी के घाट पर खाई खीर और खांड । यौं का धन यौं ही गया, तू वेश्या मैं भांड || अर्थात् पाप करके कमाया गया धन व्यर्थ ही जाता है । मायाचारी व्यक्ति अपने सब कार्य मायाचार से ही सिद्ध करना चाहता है । वह यह नहीं समझता कि काठ की हांडी दो बार नहीं चढ़ती । एक बार मायाचार प्रकट हो जाने पर जीवन भर को विश्वास उठ जाता है । मनुष्य अपने पाप को छिपाने का प्रयत्न करता है, पर वह रुई में लपेटी आग के समान स्वयमेव प्रगट हो जाता है । किसी का जल्दी प्रगट हो जाता है, और किसी का विलम्ब से, पर यह निश्चित है कि प्रगट अवश्य होता है । पाप के प्रगट होने पर मनुष्य का सारा बड़प्पन समाप्त हो जाता है, और छिपाने के कारण संक्लेश रूप परिणामों जो खोटे कर्मों का आस्रव करता है, उसका फल तिर्यंच आदि खोटी यानियों में जाकर भोगना पड़ता है । मायाचारी करना तिर्यंच गति का कारण है। मिलावट करना, जैसे असली में नकली दूध में पानी, शुद्ध घी में डालडा मिलाना - ये सब छल-कपट के कार्य हैं। आजकल देश में भ्रष्टाचार और मिलावट इतना अधिक बढ़ गया है कि अब मरने के लिये शुद्ध जहर नहीं मिलता और जीने के लिये शुद्ध भोजन नहीं मिलता । एक व्यक्ति जिन्दगी से परेशान हो गया। उसने सोचा इस 238
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy