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________________ पता लगाना काफी कठिन हो गया है । व्यापार की भाषा मे रिश्तेदारी के संबंधों में तथा अड़ोस-पड़ोस में बसने वालों के प्रति हम किस-किस तरह मायाचारी से पेश आते हैं, यह भगवान ही जानते हैं या फिर हमारा खुद का मन जानता है । और मजे की बात तो यह है कि इस तरह करने में ही हमें आनन्द आता है। सीधे में नहीं, टेड़े-मड़े चलने में ज्यादा रस आता है। सड़क पर अपनी गाड़ी यदि लहराते हुये न चलें तो फिर गाड़ी चलाने का मजा ही क्या ? गाड़ी का आनन्द तो उसे लहराकर चलाने में ही आता है । और यही हमारे कुटिल होने की पहचान है। हम पूजा में पढ़ते हैं - करिये सरल तिहुँ जोग अपने, दख निर्मल आरसी । मुख करे जैसा, लखै तैसा, कपट- प्रीति अंगास्सी ।। दर्पण साफ सुथरा है, इसलिये उसमें प्रतिबिम्ब झलकाने की क्षमता है, ऐसे ही साफ-सुथरी आत्मा में परमात्मा का प्रतिबिम्ब झलकता है । मायाजालों उलझी आत्मा में यह कदापि संभव नहीं । संसार में तो यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कि जो जैसा करता है, वैसा पाता है। यदि कोई अपना मुँह टेड़ा करे और अपेक्षा रखे कि दर्पण में सीधा सुन्दर चेहरा दिखे, तो यह कैसे संभव हो सकता है ? आप टेड़ा काम करेंगे, टेड़ा फल पायेंगे । यदि स्वच्छ चेहरा होगा तो स्वच्छ छवि दिखेगी । 'जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी ।' जब हम किसी के बारे में गलत विचार करते हैं, तो सामने वाले को भी उसका आभास हो जाता है । हमारी मानसिक विचार शक्ति का प्रभाव दूसरों पर बहुत जल्दी पड़ता है । जिस व्यक्ति की भली अथवा बुरी जैसी भी विचार-धारा होगी, सामने वाले की भी वैसी ही 224
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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