SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दिखायेंगे | पर ऐसा बिल्कुल नहीं हो सकता | मायाचारी स तिर्यंचगति का बन्ध होता है | एक बार मृदुमति मुनिराज ने मायाचारी की थी, जिससे उन्हें हाथी की पर्याय में जाना पड़ा। हमारा ज्ञान थोड़ा है। हमें पता ही नहीं चलता कि हम मायाचारी कर रहे हैं। पैसे के कारण, यश के कारण हमारा रात-दिन इस मायाचारी में निकल रहा है और हमें पता भी नहीं चलता। जब अपन लोग जाप देते हैं, ता वैस बैठे होंगे आराम से, घूम रह होंगे मन स कहीं, परन्तु किसी के पैर की आवाज मिलते ही सीधे बैठ जाते हैं | आप माला फेरकर देखना । जब माला फेरते हैं तो वैसे तो इधर-उधर देख लेंगे, नींद का झोंका भी लेते जावेंगे, परन्तु यदि कोई आपकी ओर देख ले, तो सीधे तनकर बैठ जायेंगे | यह क्या है? यह भी मायाचारी है | मायाचारी करने से स्वयं का ही अहित हाता है। आर्जव धर्म के सम्बंध में कार्तिकेयानुप्रेक्षा ग्रंथ में एक गाथा आती है जो चिंतेई ण वक्कंण कुणदि वक्कं ण जम्पदे वक्कं । णय गोवदि णियदोषं अज्जव धम्मो हवे तस्स ।। जो मन में कुटिल चिंतन नहीं करता, कुटिल कार्य नहीं करता, कुटिल वचन नहीं बोलता और अपने दोषां को नहीं छिपाता, उसके ही आर्जव धर्म होता है। जो व्यक्ति सरल होता है, उसकी सल्लेखना अच्छी होती है। मरत समय उस परेशानी नहीं होती। कम-से-कम मृत्यु के नाते ही अपने जीवन को सरल बना लें | सरलता आत्मा का स्वभाव है, वक्रता आत्मा का विकार। अनादिकाल से हमने वक्रता को ही सहचारी (206)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy