SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यह सब अत्यन्त आसान है, सरल है; किन्तु अहंकार का पराजित करना अत्यन्त कठिन काम है | यह आपके अन्तःकरण के किस कोने में कहाँ छिपकर आपको ललकारेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता | आप अल्प भी दान करते हैं तो तुरन्त कहने लगते हैं कि मैंने अमुक व्यक्ति को या अमुक संस्था को इतना दान दिया। धर्मशाला का निर्माण करते हैं तो उसपर आपका नाम अंकित होना अनिवार्य हो जाता है | आप समस्त पापों को समाप्त करने का दम्भ तो भरते हैं, परन्तु आपका चिर-परिचित 'मैं आपके साथ छाया की तरह लगा रहता है । एक पल के लिये भी वह आपसे जुदा नहीं होता। यह 'मैं' ही समस्त पुण्य संचय पर पानी फेर देता है | प्रत्येक प्राणी में यह 'मैं' ही वह भयंकर अहंकार है, उसका 'ईगो' है। इससे मुक्ति पाना ही है, अन्यथा यह हम पतन की किसी भी सीमारेखा तक ले जा सकता है | ___ अहंकार उस अग्नि के समान है जो बिना ईंधन के प्रज्वलित होती है। यह आत्मा के गुणों को जलाकर भस्म कर देती है | अहंकार के कारण ही व्यक्ति में ईर्ष्या, मात्सर्य आदि अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं। ईर्ष्या के कारण व्यक्ति अपना सबकुछ नष्ट करने पर भी तुल जाता है। उसकी ईर्ष्या बढ़ते हुये मात्सर्य का रूप धारण कर लेती है। और जब व्यक्ति के ऊपर मात्सर्य हावी होता है तो वह अपना ही सर्वनाश करने का तैयार हो जाता है | मेरा सबकुछ नष्ट हो जाये तो हो जाये, पर उसका विकास नहीं होना चाहिये-ऐसी वृत्ति जन्म ले लेती है। अपना सर्वनाश भले ही कर ले, लेकिन दूसरे का विकास नहीं देख सकता । दो व्यक्ति थे। एक लोभी था, दूसरा मत्सरी था। दोनों ने एक बार (166
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy