SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संसारी जीवों के अनादिकाल से मिथ्यादर्शन का उदय हा रहा है | उसके उदय क कारण वे इन परपदार्थों को अपना स्वरूप मानकर इनका गर्व करते हैं। उसे यह ज्ञान नहीं है कि ये जाति, कुलादि सब कर्म के उदय के अधीन हैं। इस संसार में स्वर्गलोक का बड़ा देव भी मरकर एक समय में एकेन्द्रिय में आकर उत्पन्न हो जाता है तथा कूकर, शूकर, चांडाल आदि पर्यायों को प्राप्त हो जाता है। अहंकार करने स सदा अहित ही होता है। अहंकार मानव को कमजोर बनाता है। कमजार मानव को आदर, मान, प्रतिष्ठा की अत्यधिक चाह हाती है | अहंकार उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है। वह इस कमजोरी के लिये जीता है और इसीके खातिर मर जाता है । मैं भी कुछ हूँ, बस इसी की पुष्टि के लिय वह जीवनपर्यन्त संघर्षरत रहता है, अथक परिश्रम करता है। परिणामस्वरूप उसके जीवन में दुःखां का, अनन्त पापों का आस्रव ही होता है। जीवन में दुःख, पीड़ा, संताप आदि के अलावा उसके जीवन का और कोई सार नहीं रहता। इतिहास उठाकर देख ला, जिन्होंने भी मान किया, उनका पतन हुआ। आज तक किसी का भी मान स्थिर नहीं रहा । मान रावण ने किया। रावण कहता रहा कि राम-लक्ष्मण तो भूमिगाचरी हैं, ये मच्छर क समान हैं, य मुझे कैसे जीत सकते हैं? वह रावण उन्हीं राम-लक्ष्मण के द्वारा मारा गया और मरकर नरक में जाना पड़ा। रावण और बाली का विरोध था | बाली तो मुनि बन गये। एक दिन रावण का विमान पर्वत के ऊपर से जा रहा था । विमान रुक गया । उसने उतरकर देखा कि बाली बैठा है। मुझे इसे कष्ट देना चाहिये | रावण ने पहाड़ उठा लिया । बाली विचारने लगे कि पर्वत पर जितने जीव हैं, वे सब मारे जायेंगे और यहाँ के सभी जिनमंदिर नष्ट हो जायेंगे | बाली को करुणा आई और उन्होंने पैर (162)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy