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________________ रूप स बदल गये होगे, अब तुम नित्य आत्मानंद में लीन रहते होगे, आध्यात्मिक क्षेत्र में पर्याप्त स्थान पर होग; किन्तु हम दोनों आज भी पूर्ववत उसी स्थान पर खड़े हैं, जहाँ से हमने विदा ली थी। हम दोनों ही उससे रंचमात्र भी आगे नहीं बढ़े। मैं सोचता था कि मैं अपने साम्राज्य को विशाल विस्तार प्रदान कर रहा हूँ, विजयपताकायें चहुँओर फहरा रहा हूँ, इसलिये अत्यन्त अहंकारी बन गया हूँ; किन्तु तुम तो मुझसे भी बाजी मार ले गये | क्या यही तुम्हारी तपस्या की उपलब्धि है? अहंकार का यह प्रदर्शन तो यही प्रमाणित करता है कि तुम्हारी तपस्या मात्र दिखावा है, बनावटी है। इस वेष में भी यदि अहंकार का परित्याग नहीं कर सके तब फिर इसे कब छोड़ पाओगे? मित्र! याद रखो, यह अहंकाररूपी नाग एक दिन तुम्हें अवश्य ही डस लेगा। तुम इस तपस्या के माध्यम से किसी अन्य को नहीं, अपितु स्वयं को ही ठग रह हो । यह निश्चित मानो कि इस उग्र अहंकार न तुम्हारी तपस्या का बिलकुल ही निष्फल बना दिया है। इसे अब त्याग दो, इस पर विजय प्राप्त करो। तभी तुम्हारा, मेरा, सबका कल्याण है। तुम्हें इस प्रकार उपदेश दने की मेरी तनिक भी पात्रता नहीं है, किन्तु एक सच्चे मित्र के नाते ही मैं यह सब तुमसे कह रहा हूँ | इसे अन्यथा मत लेना। ___ यह मैं और मेरा ही हमें हमारी अन्तरात्मा से दूर कर रहा है। इसस हमारी अन्तः दृष्टि कभी नहीं खुलेगी। हम इसी तरह भटकते रहंग । जन्म-जन्मान्तरों की हमारी यह भटकन कभी समाप्त नहीं होगी। हमारा यह अहंकार ही अन्तर्दृष्टि की प्राप्ति में बाधक बनता है | यह मैं ही हमारे हृदय में धर्म के वास्तविक स्वरूप को प्रविष्ट नहीं होने देता। (161
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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