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________________ दुर्लभ, कठिन होगा। बाधक कारणों को ढूंढ़ो और क्रमशः उन्हें हटाओ। यह कठिनतम प्रयोग है, क्या करें, आपको उस अग्नि-परीक्षा में ही सफल होना है, आपने मार्ग ही ऐसा चुना है कि बाधक कारणों, विपरीतताओं, प्रतिकूलताओं में भी आपको संवर की आत्मसाधना करते हुए, अंश-अंश निर्जरा करते हुए मुक्त होना विकार से परे होना संवर-जिन-जिन विकारी भावों से आत्मा, परमार्थतः निर्विकारी होते हुए भी, विकारग्रस्त हो रहा है, उन विकारों से परे होना संवर है। विकार है तो आश्रव है। विकार जितने अंश में, जिन क्षणों में पूर्णतः रुकें, उतने अंश में, उन क्षणों में संवर है। विकार, आपका अनुभव है, पूर्व कर्म-संयोग से अनुकूल-प्रतिकूल निमित्त कारणों से हो रहा है, तो फिर निमित्त-कारणों से, अनुकूल या प्रतिकूल निमित्त, व्यक्ति, वस्तु, स्थिति, परिस्थिति से भी, द्रव्यतः भी हटना पड़ेगा, फिर भावतः उन कारणों से विकार होने से आश्रव हो रहा था, वह विकारी भाव घटा, मिटा तो अंश संवर, पूर्ण संवर, उस काल में होगा। आश्रव को दृष्टांत से समझें-अघाती कर्म है-नाम, गौत्र, आयु और वेदनीय। अघाती अर्थात् आत्मा के निज गुणों में घात (हानि) नहीं करने वाले कर्म। निज गुण, ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य आदि आत्मिक गुणों में घात (हानि) करने वाले हैं ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय (अनादि मिथ्या मोहादि से उपार्जित) मोहनीय और अन्तराय कर्म। अघाती कर्म में से मोहनीय कर्म के, चारित्र मोहनीय में से राग मोहनीय वेदनीय कषाय कर्म का उदय आया। ज्ञात होता है, जब पूर्व में उपार्जित सातावेदनीय कर्म के फलस्वरूप, शरीर को साता, इन्द्रियों में से फिर किन्हीं पांचों इन्द्रियों की पूर्ति में अनुकूल व्यक्ति मिला, साता, इन्द्रिय-सुख का निमित्त कारण सामने खड़ा है, उससे प्रेरित, प्रभावित, आकर्षित, मोहित, भ्रमित हो, पूर्व में उपार्जित राग मोहनीय वेदनीय कषाय के उदय से रागभाव होता है, दोनों कारणों के मिलने से नए कर्मों का आना, आश्रव हुआ। संवर कैसे? निमित्त के अनुसार न करें तो संवर-राग का निमित्त : राग मत करो-पूर्वबद्ध कर्म के फल से, वह निमित्त तो मानो, मैंने नियत किया था, वैसा ही आया, आयेगा ही। वह निमित्त, रागी, मुझे राग में ले जाना चाहता है, उसका भी, घाती के उदय से भाव में राग आ सकता है, यदि मेरा स्वयं के भ्रम से होने वाला भाव, राग भाव मैं न करूं तो, वीतरागी परमात्मा कह गए वह निमित्त तो, रागी तो 1634
SR No.009401
Book TitleJainattva Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaymuni
PublisherKalpvruksha
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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