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________________ सप्तम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान [503] केवली उपदेश देते हैं, जिससे वह शब्द वचन योग है और सुनने वालों के लिए भावश्रुत का कारण होने से द्रव्यश्रुत है। अत: केवली में श्रुत ज्ञान का प्रसंग प्राप्त नहीं होता है। केवली केवलज्ञान से सम्पूर्ण द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से रूपी-अरूपी सभी पदार्थों को जानते हैं। गति आदि 20 द्वारों के माध्यम से केवलज्ञान के स्वरूप का वर्णन किया गया है। केवलज्ञान के सम्बन्ध में विशेष बिन्दु : 1. विश्व को जानते हुए भी केवली परेशान नहीं होते हैं। 2. केवली द्रव्येन्द्रिय की अपेक्षा पंचेन्द्रिय और भावेन्द्रिय की अपेक्षा अनीन्द्रिय होते हैं। 3. दोनों परम्परा के अनुसार केवली में द्रव्य मन होता है। 4. केवली नो संज्ञी नो असंज्ञी होते हैं। 5. सयोगी केवली के योग का सद्भाव रहता है। 6. केवलज्ञान होने के बाद मति आदि चार ज्ञान छूट जाते हैं। 7 केवलज्ञान होने के बाद निद्रा नहीं आती है, क्योंकि निद्रा, दर्शनावरणीय कर्म की प्रकृति है। दर्शनावरणीय कर्म सम्पूर्ण नष्ट होने पर ही केवलज्ञान होता है। अत: निद्रा का कर्म न होने से किसी भी केवली को निद्रा नहीं आती। 8. 'असोच्चा केवली' का अर्थ है कि उस भव में किसी दूसरों के पास धर्म का स्वरूप सुने बिना ही स्वयं धर्म का स्वरूप समझ कर केवलज्ञान प्राप्त करने वाला। अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान से केवलज्ञान की तुलना - 1. अवधि और मन:पर्यव दोनों प्रत्यक्ष ज्ञान हैं, परन्तु वे छहों द्रव्यों में मात्र एक रूपी पुद्गल द्रव्य को ही जानते हैं और उसकी असर्वपर्यायों (अपूर्ण पर्यायें) को जानते हैं, परन्तु केवलज्ञान सभी मूर्त-अमूर्त द्रव्यों को और उनकी पर्यायों को जानता है। 2. अवधिज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन चारों ज्ञेयों की अपेक्षा 'अवधि' युक्त है और मन:पर्याय ज्ञान तो उससे भी अधिक सीमित अवधि वाला है, परन्तु केवलज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन चारों ज्ञेयों की अपेक्षा अनन्त है, अवधि रहित है। 3. अवधि और मन:पर्याय ज्ञान क्षायोपशमिक होने से अशाश्वत हैं, प्रतिक्षण उसी रूप में नहीं रहते, वर्धमान हीयमान आदि हो सकते हैं। केवलज्ञान की उत्पत्ति के पश्चात् ये दोनों क्षायोपशमिक ज्ञान स्थायी नहीं रहते हैं, परन्तु केवलज्ञान क्षायिक होने से शाश्वत प्रतिक्षण स्थायी रहता है। 4. अवधि और मन:पर्याय ज्ञान, प्रतिपाति भी है और अप्रतिपाति भी है, परन्तु केवलज्ञान तो मात्र अप्रतिपाति ही होता हैं। 5. अवधि और मन:पर्यव, इन दोनों में कई भेद, प्रभेद और उपभेद हैं, परन्तु केवलज्ञान भेद रहित है। 6. अवधिज्ञान और मन:पर्यायज्ञान क्षायोपशमिक हैं, जिससे उनके साथ कुछ उदय भाव भी रहता है तथा पीछे सम्पूर्ण उदय भाव भी संभव है, पर केवलज्ञान में अंशमात्र उदय नहीं होता तथा पीछे भी उदय असंभव है। केवलज्ञान क्षायिक है। मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान में साधर्म्य - आचार्य मलयगिरि ने नंदीवृत्ति में मन:पर्यवज्ञान का केवलज्ञान से साधर्म्य बताया है। जैसेकि - 1. मनःपर्यवज्ञान अप्रमत्त मुनि को होता है, वैसे ही केवलज्ञान भी अप्रमत्त मुनि को होता है और 2. मन:पर्यवज्ञान विपर्ययज्ञान नहीं होता है वैसे ही केवलज्ञान भी विपर्ययज्ञान नहीं होता है 96 296. यथा मन:पर्यायज्ञानमप्रमत्तयतेरेव भवति एवं केवलज्ञानमप्यप्रमत्तभावयतेरेवेति साधर्म्यम्।.... यथा मन:पर्यायज्ञानं विपर्ययज्ञानं न भवति एवं केवलज्ञानमपीति साधर्म्यम्। - नंदीवृत्ति, पृ. 20
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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