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________________ सप्तम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान [473] केवली समुद्घात के बाद की प्रवृत्ति केवली भगवान् केवली समुद्घात करते हुए सिद्ध, बुद्ध, मुक्त अर्थात् निर्वाण को प्राप्त नहीं होते हैं, किन्तु वे केवली समुद्घात से निवृत्त होते हैं और निवृत्त होकर मन योग, वचन योग और काय योग की प्रवृत्ति करते हैं। मनयोग में सत्य मनयोग और व्यवहार मनयोग प्रवर्ताते हैं। वचन योग में सत्य वचन योग और व्यवहार वचन योग प्रवर्ताते हैं। काय योग (औदारिक काय योग) प्रवर्ताते हुए आते जाते हैं, उठते बैठते हैं, सोते हैं यावत् प्रतिहारी (पडिहारी - वापिस लौटाने योग्य) पाट पाटले शय्या संस्तारक को वापिस लौटाते हैं अर्थात् केवली समुद्घात के बाद अन्तर्मुहूर्त (लगभग आधा, पौन घण्टा) तक योगों की प्रवृति करने के बाद अयोगी बनते हैं। प्रश्न - सयोगी (योग सहित) जीव मोक्ष क्यों नहीं जाता है? उत्तर - योग बंधन का हेतु है फिर भी सयोगी केवली कर्मनिर्जरा के मुख्य कारणभूत परमशुक्लध्यान को प्राप्त नहीं करता है, इसलिए सयोगी केवली सिद्ध नहीं होता है।183 केवली के योग-निरोध की प्रक्रिया केवली समुद्घात के पश्चात् केवली भगवान् के जो कुछ आवश्यक कार्य होते हैं, वे उनको पूरा करके उसके बाद योगनिरोध की प्रक्रिया प्रारंभ करते हैं। योग निरोध की प्रक्रिया में दोनों परम्पराओं में मतभेद है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार - केवली अन्तर्मुहूर्त परिमाण आयु शेष रहती है, तब मन, वचन और काया की प्रवृति का निरोध करने में प्रवृत्त होते हैं, उसकी प्रक्रिया निम्न प्रकार से हैं - केवली सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाति नामक शुक्लध्यान के तीसरे पाद का ध्यान करते हुए सर्वप्रथम मनोयोग का निरोध करते हैं। मनोयोग के निरोध के लिए वे पहले जघन्य योग वाले पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय का जितना मनोद्रव्य (मन के पुद्गल) है और उसका जितना व्यापार (प्रवृत्ति) है, उसमें असंख्य गुणहीन मनोद्रव्य और व्यापार का प्रतिसमय निरोध करते-करते असंख्यात समयों में सम्पूर्ण मनोयोग का निरोध करते हैं। उसके पश्चात् वचन योग का निरोध करते हैं। वचनयोग का निरोध करने के लिए जघन्य योग वाले पर्याप्त द्वीन्द्रिय के जघन्य वचनयोग के पर्यायों से असंख्यातगुण हीन वचनयोग-पर्यायों का प्रतिसमय निरोध करते-करते असंख्यात समयों में सम्पूर्ण वचनयोग का निरोध करते हैं। वचनयोग का निरोध करने के बाद काययोग का निरोध करते हैं। प्रथम समय में उत्पन्न जघन्य योग वाले अपर्याप्त सूक्ष्म पनक जीव (निगोद जीव) के काययोग से असंख्यात गुण हीन काययोग के पुद्गल और व्यापार का प्रतिसमय निरोध करते-करते तथा शरीर की अवगाहना के तीसरे भाग को छोड़ते (पोले भाग को पूरित करते) हुए असंख्य समयों में काययोग का (श्वासोच्छ्वास सहित) पूर्ण निरोध करते हैं। काययोग का निरोध होने के साथ ही श्वासोच्छ्वास (आनापाननिरोध) का निरोध भी हो जाता है। इस प्रकार योगों का निरोध करके अयोगी होते हैं। पूर्ण योगनिरोध होते ही अयोगी या शैलेषी अवस्था प्राप्त हो जाती है। जिस अवस्था में केवली शैल अर्थात् मेरुपवर्त की तरह स्थिर हो जाते हैं, उसे शैलेशी अवस्था कहते हैं। 184 केवली के काययोग के निरोध के प्रारंभ समय में सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति (सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति) रूप शुक्लध्यान होता है और शैलेशी अवस्था (अयोगी होने के बाद) के समय समुच्छिन्न क्रियाअप्रतिपाति (व्युच्छिन्नक्रियाअप्रतिपाति) रूप शुक्लध्यान होता है।185 183. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3058 184. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3059 से 3064, औपपातिक सूत्र, पृ. 172, प्रज्ञापना सूत्र, भाग 3, पृ. 291 185. विशेषावश्यभाष्य गाथा 3068-3069
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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