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________________ [472] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन समय में केवली भगवान् स्थिति के एक खण्ड के असंख्यात खण्ड करते हैं और अनुभाग के एक खण्ड के भी असंख्यात खण्ड करते हैं। ये असंख्यात खण्ड उतने होते हैं जितने केवली भगवान् की आयु के समय बाकी होते हैं। छठे समय में एक खण्ड स्थिति का, एक खण्ड अनुभाग का और एक समय आयु का क्षय करते हैं। इसी तरह सातवें समय में, आठवें समय में यावत् मुक्त हों तब तक एक खण्ड स्थिति का, एक खण्ड अनुभाग का और एक समय आयु का क्षय करते रहते हैं।79 दिगम्बर परम्परा के अनुसार - केवली भगवान् केवली समुद्घात के प्रथम समय में दण्डसमुद्घात करते हैं। उस दण्डसमुद्घात में आयु को छोड़कर शेष तीन अघाती कर्मों की स्थिति के असंख्यात बहुभाग को नष्ट करते हैं, इसके अतिरिक्त क्षीणकषाय नामक 12वें गुणस्थान के अंतिम समय में अशुभ प्रकृतियों का जो अनुभाग क्षय करना शेष रह गया उस अनुभाग के अनंत बहुभाग को भी इस समुद्घात में नष्ट करते हैं, द्वितीय समय में कपाट समुद्घात करते हैं। उस कपाटसमुद्घात में शेष स्थिति के असंख्यात बहुभाग को नष्ट करते हैं, तथा अप्रशस्त प्रकृतियों के शेष अनुभाग के भी अनंत बहुभाग को नष्ट करते हैं। तृतीय समय में प्रतर रूप मन्थसमुद्घात करते हैं। इस समुद्घात में भी स्थिति व अनुभाग को पूर्व के समान ही नष्ट करते हैं। चतुर्थ समय में अपने सब आत्मप्रदेशों से सम्पूर्ण लोक को पूरित करके लोकपूरणसमुद्घात को प्राप्त होते हैं। लोकपूरणसमुद्घात में समयोग हो जाने पर योग की एक वर्गणा हो जाती हैं। (चौथे समय में जीव के सभी प्रदेशों में योग के अविभागप्रतिच्छेद वृद्धि-हानि से रहित होकर समान हो जाते हैं, अतः सभी आत्मप्रदेश परस्पर समान होने से उन आत्मप्रदेशों की एक वर्गणा हो जाती है।) इस अवस्था में भी स्थिति और अनुभाग को पूर्व के ही समान नष्ट करते हैं। इन चार समयों में अप्रशस्त कर्मों के अनुभाग की प्रतिसमय अपर्वतना होती है। एक-एक समय में एक स्थिति कांडक का घात होता है। उतरने के प्रथम समय से लेकर शेष स्थिति के संख्यात बहुभाग को, तथा शेष अनुभाग के अनंत बहुभाग को भी नष्ट करता है।180 केवली समुद्घात में योगों की प्रवृत्ति केवली समुद्घात में केवली भगवान् के मनयोग और वचनयोग का व्यापार नहीं होता, केवल काययोग की प्रवृत्ति होती है। काययोग में भी औदारिक, औदारिक मिश्र और कार्मण काययोग-इन तीन की प्रवृत्ति होती है शेष चार काय योग की प्रवृत्ति नहीं होती। पहले और आठवें समय में औदारिक काययोग प्रवर्तता है, दूसरे, छठे और सातवें समय में औदारिकमिश्र काययोग प्रवर्तता है और तीसरे, चौथे व पांचवें समय में कार्मण काययोग प्रवर्तता है। समुद्घात करने के बाद केवली अंतर्मुहूर्त तक संसार में रहते हैं और तीनों योगों का व्यापार करते हैं। अंतर्मुहूर्त बाद योगों का निरोध करते हैं।187 गोम्मटसार में इसी बात को गूढ़ शब्दों में कहा है - दण्ड रूप करने तथा समेटने रूप दो क्रियाओं में औदारिक शरीर पर्याप्तिकाल है। कपाट रूप करने तथा समेटने रूप दो में औदारिक मिश्र शरीर काल है अर्थात् अपर्याप्त काल है। प्रतर रूप करने और समेटने में तथा लोकपूरण में कार्मण काल है और मूल शरीर में प्रवेश करने के प्रथम समय से लगाकर संज्ञी पंचेन्द्रिय की तरह अनुक्रम से पर्याप्ति पूर्ण करता है।182 गोम्मटसार के इस कथन से यह प्रतीत होता है कि दिगम्बर परम्परा में समुद्घात में जीव पुनः पर्याप्तियों को पूर्ण करता है। 179. प्रज्ञापना सूत्र, 36वां पद 180. षट्ख ण्डागम, पु.6, 1.9-8.16, पृ. 412-417 181. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3054 से 3057, औपपातिक सूत्र, पृ. 170, प्रज्ञापना सूत्र, भाग 3, पृ. 289-290 182. गोम्मटसार कर्मकांड, भाग 2, गाथा 587, पृ. 929-930
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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