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________________ सप्तम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान [467] ३. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति - मोक्ष जाने से पहले केवली भगवान् मन और वचन इन दो योगों का तथा अर्द्ध काययोग का भी निरोध कर लेते हैं। उस समय केवली भगवान् के कायिकी, उच्छ्वास आदि सूक्ष्म क्रिया ही रहती है। परिणामों में विशेष बढे चढ़े रहने से केवली यहां से पीछे नहीं हटते। यह तीसरा सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति शुक्ल ध्यान है। ४. व्युपरतक्रियानिवर्ति - शैलेशी अवस्था को प्राप्त केवली भगवान् सभी योगों का निरोध कर लेते हैं। योगों के निरोध से सभी क्रियाएं नष्ट हो जाती हैं। यह ध्यान सदा बना रहता है। इसलिए इसे व्युपरतक्रियानिवर्ति शुक्ल ध्यान कहते हैं। पृथक्त्ववितर्क सविचारी शुक्ल ध्यान सभी योगों में होता है। एकत्ववितर्क अविचारी शुक्ल ध्यान किसी एक ही योग में होता है। सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्ल ध्यान केवल काययोग में होता है। चौथा व्युपरतक्रियानिवर्ति शुक्लध्यान अयोगी के ही होता है। छद्मस्थ के मन को निश्चल करना ध्यान कहलाता है और केवली की काया को निश्चल करना ध्यान कहलाता है। पृथक्त्ववितर्क में अर्थ, व्यंजन और योग में मन का संचार चालू रहता है। एकत्ववितर्क में यह संचार रुक जाता है।55 पृथक्त्ववितर्क के अभ्यास से ध्यान में प्रगति करके मुनि मोहनीय कर्म को नष्ट करने के लिए ज्ञानावरणादि प्रकृतियों का बंध रोक कर स्थिति का ह्रास और क्षय करके अर्थ, व्यंजन और योग में होने वाले मन का संचार रोककर और स्थिर चित्त वाला होकर एकत्ववितर्क ध्यान करते हैं। जिसे पहले कभी भी पूर्णतः क्षीण नहीं कर पाया, ऐसे मोहनीय कर्म की समस्त शेष प्रकृतियों का क्षय करता है, उसके बाद अन्तमुहूर्त में छद्मस्थ जीव वीतराग बन जाता है, फिर वह पांच प्रकार वाले ज्ञानावरणीय, नौ प्रकार वाले दर्शनावरणीय और पांच प्रकार वाले अन्तराय इन तीनों कर्मों को एक साथ क्षय करता है। जिसके फलस्वरूप अनुत्तर, अनन्त, कृत्स्न-सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण, निरावरण, अन्धकार रहित, विशुद्ध, लोकालोकप्रभावक-लोकालोक को प्रकाशित करने वाले केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त करता है।56 विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार निश्चयनय और व्यवहारनय की अपेक्षा कर्मों का क्षय जिस समय केवलज्ञानावरण का क्षय होता है, उसी समय केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है, यह निश्चयनय का अभिमत है। व्यवहार नय से केवलज्ञानावरण के क्षय के अनन्तर समय में केवलज्ञान उत्पन्न होता है।57 व्यवहार नय के अनुसार ज्ञानावरण की क्षीयमाण अवस्था में ज्ञान नहीं होता, आवरण के क्षय होने पर ही वह प्रकट होता है, क्योंकि क्रियाकाल और निष्ठाकाल में एकत्व उचित नहीं है।158 निश्चयनयवादी कहते हैं कि यदि क्रियाकाल में क्षय नहीं होता है तो वह बाद में भी नहीं होगा। यदि क्रिया के बिना ही क्षय होता है, तब पहले समय की क्रिया की क्या अपेक्षा है?159 आगम में भी निर्जीर्यमाण को निजीर्ण कहा गया है। 160 कर्म का वेदन होता है और नोकर्म (अकर्म) की निर्जरा होती है। (कम्मं वेइज्जइ नो कम्मं णिज्जरिज्जइ।) इसलिए निर्जीर्यमाण (क्षीयमाण) काल में कर्म के आवरण का क्षय हो जाता है। क्षीयमाण और क्षीण में कालभेद नहीं है। जिस प्रकार प्रकाश और अंधकार में 155. तत्त्वार्थसूत्र, अध्ययन 9, सूत्र 43, 44, 46, सर्वार्थसिद्धि 9.42 156. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 29 सूत्र 72 157. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 1334 158. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 1335 159. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 1337 160. चलमाणे चलिए जाव णिज्जरिज्जमाणे निजिण्णे। - युवाचार्य मधुकरमुनि, भगवतीसूत्र भाग 1, श. 1. उ.1 पृ. 16 161. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 1338
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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