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________________ [466] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन केवलज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया जीव को किस प्रकार केवलज्ञान की प्राप्ति होती है, इस सम्बन्ध में विशेषावश्यकभाष्य में विशेष उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। इस सम्बन्ध में अन्य ग्रन्थों में प्राप्त वर्णन निम्न प्रकार से है केवलज्ञान की प्राप्ति के हेतु केवलज्ञान की प्राप्ति कषाय के क्षय होने पर ही होती है। मोह का क्षय होने से के बाद ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अंतराय कर्म का एक साथ क्षय होने से केवलज्ञान प्रकट होता है । 196 केवलज्ञानावरणकर्म क्षीण होने पर केवलज्ञान उत्पन्न होता है, अतः वह क्षय निष्पन्न है।" क्षय के लिए बंध के हेतु का अभाव और निर्जरा आवश्यक है। बंध के पांच हेतु है मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग 149 इन पांच हेतुओं के अभाव से नये कर्मों का बंध नहीं होता है और जो सत्ता में हैं, उनकी निर्जरा होती है । 150 निर्जरा के लिए तप आवश्यक है। तप बाह्य और आभ्यंतर के भेद से दो प्रकार का है। दोनों तप के छह-छह भेद होते हैं। 151 ध्यान आभ्यंतर तप का एक भेद होने से केवलज्ञान की प्राप्ति में उसका महत्त्व है क्योंकि ध्यान संवरयुक्त होने से उसमें नये कर्मों बंध नहीं होता है और पुराने कर्मों की निर्जरा होती है। 1 ध्यान चार का प्रकार होता है - आर्त्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ध्यान । इनमें से अंतिम दो ध्यान मोक्ष के हेतु होते हैं। उनमें भी शुक्लध्यान का विशेष महत्त्व है। शुक्लध्यान के चार प्रभेद हैं. पृथक्त्वविर्तक, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवर्ति । शुक्लध्यान के चार भेदों में से प्रथम के दो भेदों से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है और अंतिम दो केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद प्रयुक्त होते हैं। शुक्लध्यान के अंतिम दो भेदों के नाम में मतान्तर है, विशेषावश्यक भाष्य में क्रमशः सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति और व्युच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति 5 प्रयुक्त हुए है। शुक्लध्यान के चार भेदों का संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है १. पृथक्त्ववितर्क एक द्रव्य विषयक अनेक पर्यायों का पृथक् पृथक् रूप से विस्तार पूर्वक पूर्वगत श्रुत के अनुसार द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक आदि नयों से चिन्तन करना पृथक्त्व वितर्क सविचारी शुक्ल ध्यान है। यह ध्यान विचार सहित होता है। विचार का स्वरूप है अर्थ, व्यञ्जन (शब्द) एवं योगों में संक्रमण अर्थात् इस ध्यान में अर्थ से शब्द में, शब्द से अर्थ में, शब्द से शब्द में और अर्थ से अर्थ में एवं एक योग से दूसरे योग में संक्रमण होता है । पूर्वगत श्रुत के अनुसार विविध नयों से पदार्थों की पर्यायों का भिन्न भिन्न रूप से चिन्तन रूप यह शुक्ल ध्यान पूर्वधारी को होता है और मरुदेवी माता की तरह जो पूर्वधर नहीं हैं उन्हें अर्थ, व्यञ्जन एवं योगों में परस्पर संक्रमण रूप यह शुक्ल ध्यान होता है। - - २. एकत्ववितर्क पूर्वगत श्रुत का आधार लेकर उत्पाद आदि पर्यायों के एकत्व (अभेद) से किसी एक पदार्थ का अथवा पर्याय का स्थिर चित्त से चिन्तन करना एकत्व वितर्क अविचारी है। इसमें अर्थ, व्यञ्जन और योगों का संक्रमण नहीं होता। जिस तरह वायु रहित एकान्त स्थान में दीपक की लौ स्थिर रहती है, उसी प्रकार इस ध्यान में चित्त स्थिर रहता है। 145. आवश्यकनिर्युक्ति, गाथा 104 147. खयनिप्फणे... खीणकेवलनाणावरणे। अनुयोगद्वार 149. तत्त्वार्थसूत्र, अध्ययन 8, सूत्र 1 151. तत्त्वार्थसूत्र, अध्ययन 9, सूत्र 19, 20 152. एतदभ्यन्तरं तपः संवरत्वादभिनवकर्मोपचयप्रतिषेधकं निर्जरणफलत्वात् कर्मनिर्जरकम् । तत्वार्थभाष्य 9.46 153. तत्त्वार्थसूत्र, अध्ययन 9, सूत्र 29, 30, 39, 40, 41 146. तत्त्वार्थ सूत्र 10.1 148. तत्त्वार्थसूत्र, अध्ययन 10, सूत्र 1, 2 150. सर्वार्थसिद्धि 10.2 154. विशेषावश्यभाष्य गाथा 3069
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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