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________________ प्रथम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति : एक परिचय [22] भाष्य की अपेक्षा अधिक विस्तृत है। निशीथ के विशेषचूर्णिकार ने चूर्णि की परिभाषा इस प्रकार दी है - 'पागडो ति प्राकृतः प्रगटो वा पदार्थो वस्तुभावो यत्र सः, तथा परिभाष्यते अर्थोऽनयेति परिभाषा चूर्णिरुच्यते।' अभिधान राजेन्द्रकोष में चूर्णि की परिभाषा इस प्रकार है - अत्थबहुलं महत्थं हेउनिवाओवसग्गगंभीरं। बहुपायमवोच्छिन्नं गमणयसुद्धं तु चुण्पपयं॥ अर्थात् अर्थ की बहुलता हो, महान् अर्थ हो, हेतु, निपात और उपसर्ग से जो युक्त हो, गंभीर हो, अनेक पदों से समन्वित हो, जिससे अनेक गम (जानने के उपाय) हों और जो नयों से शुद्ध हो, उसे चूर्णिपद समझना चाहिये। चूर्णियों में प्राकृत की लौकिक, धार्मिक आदि अनेक कथायें दी गई हैं, प्राकृत भाषा में शब्दों की व्युत्पत्ति मिलती है तथा संस्कृत और प्राकृत के अनेक पद्य उद्धृत हुए हैं। चूणियों में निशीथ की विशेषचूर्णि तथा आवश्यकचूर्णि का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। इनमें जैन पुरातत्त्व से संबंध रखने वाली विपुल सामग्री मिलती है। देश-विदेश के रीति-रिवाज, मेले-त्यौहार, दुष्काल, चोर-लुटेरे, सार्थवाह, व्यापार के मार्ग, भोजन, वस्त्र, आभूषण आदि विषयों का चूर्णियों में वर्णन है, जिससे जैन आचार्यों की जनसंपर्क-वृत्ति, व्यवहारकुशलता और उनके व्यापक अध्ययन का पता लगता है। लोककथा और भाषाशास्त्र की दृष्टि से यह साहित्य अत्यन्त उपयोगी है। चूर्णिकार वाणिज्यकुलीन कोटिगणीय वज्रशाखीय जिनदासगणि महत्तर अधिकांश चूर्णियों के कर्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं। परम्परा से निम्न चर्णियाँ जिनदासगणि महत्तर की मानी जाती हैं - निशीथचर्णि, नन्दीचूर्णि, अनुयोगद्वारचूर्णि, आवश्यकचूर्णि, दशवैकालिकचूर्णि, उत्तराध्ययनचूर्णि, आचारांगचूर्णि, सूत्रकृतांगचूर्णि। उपलब्ध जीतकल्पचूर्णि सिद्धसेनसूरि की रचना है। बृहत्कल्पचूर्णिकार का नाम प्रलम्बसूरि है।” जिनदास कृत अनुयोगद्वार चूर्णि से जिनभद्र के द्वारा अंगुल पद पर अक्षरक्ष: चूर्णि उद्धृत की गई है। दशवैकालिक सूत्र पर एक और चूर्णि है। इसके रचयिता अगस्त्यसिंह हैं। अन्य चूर्णिकारों के नाम अज्ञात हैं। निम्नलिखित आगमों पर चूर्णियाँ उपलब्ध हैं - आचारांग, सूत्रकृतांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, कल्प, व्यवहार, निशीथ, पंचकल्प, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प, जीवाभिगम, प्रज्ञापनाशरीपपद, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक सूत्र, नंदी और अनुयोगद्वार। चूर्णियों का रचना क्रम निश्चय रूप में कुछ भी नहीं कह सकते हैं। आवश्यक सूत्र का प्रसंग होने से आवश्यक चूर्णि के प्रसिद्ध चूर्णिकार जिनदासगणि महत्तर के धर्मगुरु का नाम उत्तराध्ययनचूर्णि के अनुसार वाणिज्यकुलीन, कोटिकगणीय, वज्रशाखीय गोपालगणि महत्तर है तथा विद्यागुरु का नाम निशीथ-विशेषचूर्णि के अनुसार प्रद्युम्न क्षमाश्रमण है। नन्दीचूर्णि के अन्त में चूर्णिकार ने अपना जो परिचय दिया है वह अस्पष्ट है। जिनदास का समय भाष्यकार आचार्य जिनभद्र और टीकाकार आचार्य हरिभद्र के बीच का होना चाहिए। इसका प्रमाण यह है कि आचार्य जिनभद्रकृत विशेषावश्यकभाष्य की गाथाओं का प्रयोग इनकी चूर्णियों में दृष्टिगोचर होता है 79. जैन ग्रंथावली पृ. 12 80. गणधरवाद, पृ. 211 81. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग 3, पृष्ठ 268
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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