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________________ [330] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन (8-12 ) तनु (शरीर) की चार वर्गणाएं - जो वर्गणाएं भेद और संघात (अभेद) के परिणमन के द्वारा औदारिक आदि चार शरीरों की योग्यता के सन्मुख होने से इनको शरीर वर्गणा कहते हैं अथवा मिश्र स्कंध और अचित्त स्कंध के देह-उपचय की योग्यता के अभिमुख जो वर्गणाएं है, वे तनु वर्गणाएं हैं। चार ध्रुवानन्तर वर्गणाओं के बाद एक-एक परमाणु की वृद्धि युक्त अनंत वर्गणात्मक चार तनु (शरीर) वर्गणा है। ____ 13. मिश्रस्कंध वर्गणा - जो अनंतानंत परमाणु से बने हुए सूक्ष्म परिणाम वाले और अनेक बादर परिणमन के सन्मुख हुए स्कंध, मिश्रस्कंध कहलाते हैं।89 14. अचित्तमहास्कंध - अचित्तमहास्कंध अपनी स्वाभाविक परिणति से केवली समुद्घात के समान चार समय में सम्पूर्ण लोक पूरित करता है तथा पुनः इस अचित्त महास्कंध को बिखरने में चार समय लगते हैं। अचित्तमहास्कंध समुद्र-ज्वार की तरह लोक को आपूरित करता है और फिर संकुचित हो जाता है। इस प्रकार अचित्त महास्कंध में आठ समय लगते हैं। वह अचित्तमहास्कंध लोकप्रमाण और स्वाभाविक परिणमन से होता है। तिरछे लोक में यह असंख्यात योजन प्रमाण अथवा संख्यात योजन प्रमाण में वृत्ताकार होता है। इसके होने का काल नियत नहीं है। प्रश्न - यहाँ पुद्गलों का वर्णन चल रहा था और पुद्गल तो अचित्त ही होते हैं इसलिए महास्कंध कहना चाहिए था, न कि अचित्त महास्कंध? उत्तर - यदि यहाँ महास्कंध कहते तो केवली समुद्घात में जीवाधिष्ठित अनंतानंत कर्म पुद्गलमय स्कंध होते हैं। उनका भी ग्रहण होता है, क्योंकि दोनों महास्कंधों में क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से समानता है। इसलिए अचित्त विशेषण देकर पुद्गलों के महास्कंध को भिन्न किया है, क्योंकि केवली समुद्घात गत कर्म पुद्गल महास्कंध जीवाधिष्ठित होने से सचित्त हैं।90 अचितमहास्कंध और सचित्तमहास्कंध दोनों का क्षेत्र सम्र्पूण लोकाकाश है। चतुर्थ समय में ये पूरे लोक में व्याप्त हो जाते हैं। दोनों का स्थितिकाल आठ समय का है। दोनों में पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और चार स्पर्श (शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष) होते हैं।191 मतान्तर - किन्हीं आचार्यों का मत है कि उपर्युक्त अचित्त महास्कंध सर्व से उत्कृष्ट प्रदेशों से बना है कारण कि औदारिक आदि सभी वर्गणाओं का कथन करने के बाद इस महास्कंध का कथन किया है। इससे सिद्ध होता है कि यह महास्कंध सर्वोत्कृष्ट प्रदेश वाला है। ऐसा एकान्त मानना सही नहीं है, क्योंकि प्रज्ञापना में उत्कृष्ट प्रदेशी स्कन्धों को अवगाहना और स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थान पतित बताया है। प्रज्ञापनासूत्र में उत्कृष्ट स्कन्ध को अष्टस्पर्शी और अचित्तमहास्कन्ध को चतु:स्पर्शी कहा गया है अर्थात् एक उत्कृष्ट प्रदेशी स्कंध दूसरे उत्कृष्ट प्रदेशी स्कंध से भी चतुःस्थान पतित होता है। अष्टस्पर्शी स्कंध अचित्त महास्कंध नहीं होते हैं। इससे ज्ञात होता है कि पुद्गलास्तिकाय इतना ही नहीं है। पुद्गल के अन्य भेद भी हैं, जो यहाँ संगृहीत नहीं है। प्रश्न - भगवन् ! उत्कृष्ट प्रदेशी स्कंधों के कितने पर्याय कहे गए हैं? उत्तर - गौतम! (उनमें) अनंत पर्याय कहे हैं। प्रश्न-भगवन् ! किस अपेक्षा से आप ऐसा कहते हैं कि उत्कृष्ट प्रदेशी स्कंधों के अनंत पर्याय हैं? उत्तर - गौतम! उत्कृष्ट प्रदेशी स्कंध, दूसरे उत्कृष्ट प्रदेशी स्कंध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य हैं, 190. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 643-644 189. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 639-642 191. विशेषावश्यकभाष्य, मलधारी हेमचन्द्र, बृहद्वृत्ति, पृ. 282
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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