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________________ प्रथम अध्याय विशेषावश्यक भाष्य एवं बृहद्वृत्ति : एक परिचय [9] उत्कीर्तन करना दुष्कर है। समभाव को जीवन में धारण करने वाला व्यक्ति ही महापुरुषों के गुणों की स्तुति करता है और उनके सद्गुणों को अपने आचरण में लाता है, जीवन में उतारता है। इसीलिए सामायिक आवश्यक के पश्चात् चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक रखा गया है। जब गुणों को व्यक्ति हृदय में धारण करता है, तभी उसका सिर महापुरुषों के चरणों में झुकता है। भक्ति भावना से विभोर होकर वह उन्हें वन्दन करता है, इसीलिए तृतीय आवश्यक वन्दन है । वन्दन करने वाले साधक का हृदय सरल होता है, खुली पुस्तक की तरह उसके जीवन पृष्ठों को प्रत्येक व्यक्ति पढ़ सकता है। सरल व्यक्ति ही अपने दोषों की आलोचना करता है, अतः वंदन के पश्चात् प्रतिक्रमण आवश्यक का निरूपण है। भूलों का स्मरण कर उन भूलों से मुक्ति पाने के लिए तन एवं मन में स्थिरता होना आवश्यक है। कायोत्सर्ग में तन और मन को एकाग्र किया जाता है और स्थिर वृत्ति का अभ्यास किया जाता है। जब तन और मन स्थिर होता है, तभी प्रत्याख्यान किया जा सकता है । मन डांवाडोल स्थिति में हो, तब प्रत्याख्यान सम्भव नहीं है। इसीलिए प्रत्याख्यान आवश्यक का स्थान छठा रखा गया है। इस प्रकार यह षडावश्यक आत्मनिरीक्षण, आत्मपरीक्षण और आत्मोत्कर्ष का श्रेष्ठतम उपाय है षडावश्यकों का साधक के जीवन में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है । आवश्यक से आध्यात्मिक शुद्धि होती है साथ ही लौकिक जीवन में समता, नम्रता, क्षमाभाव आदि सद्गुणों की वृद्धि होने से आनन्द के निर्मल निर्झर बहने लगते हैं । साधक चाहे श्रावक हो अथवा, श्रमण, उसे इन आवश्यको की साधना करनी होती है । साधु एवं श्रावक की आवश्यक - साधना की गहराई और अनुभूति में तीव्रता, मंदता हो सकती है और होती है। श्रावक की अपेक्षा श्रमण इन क्रियाओं को अधिक तल्लीनता के साथ कर सकता है, क्योंकि वह संसार त्यागी है, आरंभ समारम्भ से सर्वथा विरत है। इसी कारण उसकी साधना में श्रावक की अपेक्षा अधिक तेजस्विता होती है । आवश्यक सूत्र का व्याख्या साहित्य आगम - साहित्य पर नुिर्यक्ति, संग्रहणी, भाष्य, चूर्णि, टीका, विवरण, विवृत्ति, वृत्ति, दीपिका, टब्बा आदि विपुल व्याख्यात्मक साहित्य लिखा गया है क्योंकि मूल ग्रंथ के रहस्योद्घाटन के लिए उसकी विभिन्न व्याख्याओं का अध्ययन अनिवार्य नहीं तो भी आवश्यक तो है ही। मूल ग्रंथ के रहस्य का उद्घाटन करने के लिए व्याख्यात्मक साहित्य का निर्माण करना भारतीय ग्रंथकारों की बहुत ही प्राचीन परम्परा है। इस साहित्य को मुख्य रूप से नियुक्ति (प्राकृत पद्य), भाष्य ( प्राकृत पद्य), चूर्णि ( संस्कृत - प्राकृत मिश्रित गद्य), टीका (संस्कृत गद्य) और टब्बा ( लोकभाषाओं में रचित व्याख्याएं) इन पांच विभागों में विभक्त किया जा सकता है। लेकिन सभी आगमों पर नियुक्ति, भाष्य और चूर्णि नहीं लिखे गये हैं। समस्त आगमों पर टीकाएं उपलब्ध हैं। आचार्य हस्तीमलजी के अनुसार 28वें पट्टधर आचार्य हरिल सूरि के उत्तरकाल में मूलागमों के स्थान पर नियुक्ति, भाष्य और चूर्णि के युग का प्रादुर्भाव हुआ जो धीरे-धीरे बढ़ता गया । अन्ततोगत्वा लगभग वीर निर्वाण की 12 वीं शताब्दी के प्रारंभ से आगमों के स्थान पर भाष्यों, वृत्तियों तथा चूर्णियों को जैन संघ का बहुत बड़ा भाग धार्मिक संविधान के रूप में मानने लगा। * आवश्यक सूत्र जैन श्रुत का एक प्रसिद्ध एवं दैनिक उपयोगी ग्रन्थ है। इसका प्रचार अपने रचना काल से लेकर उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया है। आज भी जितना व्याख्या साहित्य इस सूत्र के 38. आवश्यक सूत्र, प्रस्तावना पृ० 20 39. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग 3, पृ. 426
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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