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________________ [294] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन वाला सारा ज्ञान मतिज्ञान ही है। परोपदेश और आगमवचन इन दो विशेषताओं से विशिष्ट श्रुतज्ञान मतिज्ञान का ही एक भेद है, इससे भिन्न नहीं है। आगमों में श्रुतज्ञान को मतिपूर्वक कहा गया है, लेकिन श्रुतज्ञान श्रुतपूर्वक भी होता है, जैसेकि परम्परागत रूप से वह भी मतिज्ञान पर ही आधारित है। अकलंक कहते हैं कि घट शब्द को सुनकर पहले घट वस्तु का ज्ञान तथा उस श्रुत से जलधाराणादि कार्यों का जो द्वितीय श्रुतज्ञान होता है वह श्रुतपूर्वक श्रुतज्ञान है। यहाँ प्रथम श्रुतज्ञान के मतिपूर्वक होने से द्वितीय श्रुतज्ञान में भी मतिपूर्वकत्व का उपचार कर लिया जाता है, अथवा पूर्व शब्द व्यवहित पूर्व को भी कहता है । अतः साक्षात् या परम्परा मतिपूर्वक उत्पन्न होने वाले ज्ञान श्रुतज्ञान कहा जाता है । श्रुतज्ञान और मतिज्ञान में अन्तर - 1. श्रुतज्ञान में वाच्य पदार्थ और वाचक शब्द के परस्पर सम्बन्ध का ज्ञान नियम से और मुख्य रूप से रहता है तथा शब्द उल्लेख भी नियम से होता है । परन्तु मतिज्ञान में वाच्य वाचक सम्बन्ध की पर्यालोचना नहीं होती है। 2. श्रुतज्ञान त्रैकालिक वस्तु को विषय करता है, जबकि मतिज्ञान वर्तमान कालिक वस्तु में प्रवृत्त होता है अतः मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान कार्य है, इत्यादि हेतुओं श्रुत और मति में भेद को स्पष्ट किया गया है। - श्रुतज्ञान के कितने भेद हैं, इसके सम्बन्ध में आचार्य एक मत नहीं हैं, सभी आचार्यों के मत का अध्ययन करने पर इस सम्बन्ध में मुख्य रूप से श्रुतज्ञान के भेदों को चार भागों में विभक्त कर सकते हैं 1. अनुयोगद्वार सूत्र के अनुसार नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ये चार भेद. 2. आवश्यकनिर्युक्ति के अनुसार अक्षर - अनक्षर, संज्ञी - असंज्ञी आदि चौदह भेद, 3. षट्खण्डागम के अनुसार पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षर समास आदि बीस भेद एवं 4. तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ये दो भेद । - उपर्युक्त भेदों में अनुयोगद्वार कृत भेद प्राचीन निक्षेप पद्धति के आधार पर किये गये हैं, षट्खण्डागम में वर्णित भेद विस्तारशैली वाले हैं, जबकि तत्त्वार्थसूत्र में उल्लिखित भेद अति संक्षिप्त शैली से युक्त हैं। अतः आवश्यकनिर्युक्ति में श्रुतज्ञान के जो चौदह भेद किये गये हैं, वे न तो विस्तार युक्त है और नहीं संक्षिप्तशैली से वर्णित है। आवश्यकनिर्युक्ति कृत भेदों से श्रुतज्ञान के सम्बन्ध में विशिष्ट जानकारी मिलती है। अक्षर- अनक्षर श्रुत अक्षर शब्द का प्रयोग अमरत्व के रूप हुआ है अर्थात् जिसका कभी नाश नहीं हो वह अक्षर है । इस व्युत्पत्ति से तो पांचों ज्ञान अक्षर रूप हैं, फिर भी श्रुतज्ञान की प्रमुखता होने से श्रुतज्ञान को ही अक्षर कहा गया है। I जो अकारादि घट, पट आदि अभिधेय पदार्थों के अर्थ को प्रकट करते हैं, वे वर्ण कहलाते हैं वर्ण दो प्रकार के होते हैं - स्वर और व्यंजन । जो व्यंजन को उच्चारण के योग्य बनाते हैं, वे अकारादि स्वर कहलाते हैं, जो पदार्थ को प्रकट करते हैं, वे व्यंजन कहलाते हैं। अक्षर श्रुत तीन प्रकार का होता है - 1. संज्ञाक्षर - नियत अक्षर के आकार को संज्ञाक्षर कहते हैं, जैसे अ, आ, क, ख, ट आदि अर्थात् संज्ञाक्षर आकृति रूप होता है। 2. व्यंजनाक्षर - शब्द के अर्थ को प्रकट करने वाले अक्षर बोलते समय व्यंजनाक्षर हैं। 3. लब्ध्यक्षर क्षयोपशम के निमित्त से होने वाला ज्ञान लब्ध्यक्षर है। श्रुतज्ञानावरण के - धवलाटीका में इनको क्रम से संस्थान अक्षर, निर्वृत्यक्षर और लब्धि अक्षर कहा गया है। संज्ञाक्षर और व्यंजनाक्षर द्रव्यश्रुत रूप और लब्ध्यक्षर भावश्रुत रूप होता है। जिनभद्रगणि ने इन्द्रियज्ञान को परमार्थ से अनुमान रूप ही स्वीकार किया है।
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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