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________________ चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान [293] अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापत्ति, प्रतिपत्तिसंभव, अभाव, 459 स्मृति. तर्क 460 आदि का अंतर्भाव श्रुत में किया और विशेष स्पष्ट करते हुए कहा कि उपर्युक्त अनुमान आदि जो स्वप्रतिपत्ति कराते हैं, तो उनको अनक्षर श्रुत में और परप्रतिपत्ति कराते हैं तो उनको अक्षरश्रुत में ग्रहण करना चाहिए "" जबकि आचार्य विद्यानंद के अनुसार प्रतिभाज्ञान, संभव, अभाव, अर्थापत्ति और स्वार्थानुमान ये जब अशब्दात्मक होते है तब उनका ग्रहण मतिज्ञान में होता है तथा जब शब्द रूप होते हैं, तब उनका ग्रहण श्रुतज्ञान में करना चाहिए 42 समीक्षण जो ज्ञान श्रोत्रेन्द्रिय से सम्बन्धित हो, वह श्रुतज्ञान है । लेकिन यहाँ श्रोत्रेन्द्रिय में प्रयुक्त इन्द्रिय शब्द के उपलक्षण से शेष इन्द्रियों से होने वाला ज्ञान भी श्रुतज्ञान से सम्बन्धित है, ऐसा समझना चाहिए। आत्मा जिस परिणामविशेष से वाच्यवाचक संबंधयुक्त शब्द से संस्पृष्ट अर्थ को सुनती - जानती है, वह परिणामविशेष श्रुतज्ञान है। मलधारी हेमचन्द्र की बहद्वृत्ति के अनुसार जिसे आत्मा सुने वह श्रुत है, क्योंकि शब्द को जीव सुनता है, इसलिए श्रुतज्ञान शब्द रूप ही है। यदि ऐसा मानेंगे तो श्रुत आत्म-परिणाम रूप नहीं रहेगा, क्योंकि पूर्वपक्ष शब्द को ही श्रुत मान रहा है, लेकिन शब्द पौद्गलिक होने से मूर्त रूप होता हैं जबकि आत्मा अमूर्त है किन्तु मूर्त वस्तु अमूर्त का परिणाम नहीं होती है और आगम में तो श्रुतज्ञान को आत्म- परिणाम रूप माना गया है। अतः वक्ता द्वारा बोला गया शब्द श्रुतज्ञान का निमित्त होता है। श्रुतज्ञान के इस निमित्तभूत शब्द में श्रुत का उपचार किया जाता है, लेकिन परमार्थ से जीव (आत्मा) ही श्रुत है । जब कर्मवाच्य का प्रयोग करके कहे कि 'जो सुना जाय, वह श्रुत है' तो इससे द्रव्यश्रुत का और जब कर्तृवाच्य का प्रयोग करके कहे कि 'जो सुनता है, वह श्रुत है तो इससे भावश्रुत का ग्रहण होता है। यदि शब्दोल्लेखज्ञान श्रुतज्ञान है तो इस लक्षण से एकेन्द्रिय जीवों में श्रुत ज्ञान नहीं हो सकता है, इस शंका का समाधान जिनभद्रगणि ने युक्तियुक्त दिया है कि एकेन्द्रिय जीवों में भी श्रुतज्ञान (अज्ञान) आहार संज्ञा आदि के समय होता है, पर वह अत्यन्त मन्द रूप होता है । श्रुतज्ञान का अन्य ज्ञानों से वैशिष्ट्य है चार ज्ञान अपने स्वरूप को स्वयं व्यक्त नहीं कर सकते हैं, अपने स्वरूप को प्रकट करने के लिए उन्हें श्रुतज्ञान का सहारा लेना पड़ता है, इसलिए श्रुतज्ञान अन्य ज्ञानों से विशिष्ट है। श्रुतज्ञान चरण करण की प्ररूपणा और आचरण में मुख्य होता है, इसके द्वारा ही आत्मा का उपकार होता है। श्रुतज्ञान और केवलज्ञान की तुलना करने पर मात्र दोनों में इतना ही अन्तर है कि केवलज्ञानी जिस विषय को प्रत्यक्ष जानता है, श्रुतज्ञानी उसी विषय को परोक्ष रूप से जानता है अतः श्रुतज्ञान परोक्ष है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष है। मतिज्ञान श्रुतज्ञान का आधार है। वही पदार्थ श्रुतज्ञान का विषय हो सकता है जिसे पहले मतिज्ञान द्वारा जान लिया गया है। कभी कोई ऐसा पदार्थ श्रुतज्ञान का विषय नहीं हो सकता जो व्यक्ति के मतिज्ञान की सीमा से पूर्णतया भिन्न हो अतः श्रुतज्ञान की उत्पत्ति मतिज्ञान से होती है। फिर दोनों के आवरक कर्म अलग-अलग हैं, इसलिए दोनों भिन्न हैं । मलधारी हेमचन्द्र ने बहद्वृत्ति में स्पष्ट किया है कि इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने 459. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.20.15 461. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.20.15 460. लघीयत्रय 3.10, 11 उद्धृत न्याकुमुदचन्द्र पृ. 404-5 462. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 1.20.124 से 126
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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