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________________ [278] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन को पूर्वपक्ष के रूप में कहा गया है। धवला पुस्तक 1 में कहा है कि इस सूत्र नामक अर्थाकार के 88 अधिकारों में से चार अधिकारों का नाम निर्देश मिलता है - 1. अबन्धकों का 2. त्रैराशिकवादियों का 3. नियतिवाद का 4. स्वसमय प्ररूपक का 7 सूत्र में कुल पद अठासी लाख (8800000) पद है।79 3. पूर्वगत ___तीर्थंकर, तीर्थप्रवर्तन के समय गणधरों के लिए सबसे पहले जो महान् अर्थ कहते हैं, उन महान् अर्थों को जिस सूत्र में गणधर गूंथते हैं, उसे 'पूर्वगत' कहते हैं। आवश्यकनियुक्ति गाथा 292-293 के अनुसार गणधरों के द्वारा इनकी रचना द्वादशांगी से पूर्व की गई थी और इसका आधार तीर्थंकर द्वारा फरमाये गये तीन मातृका पद (उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा) थे। पूर्वो का ज्ञान विशिष्ट विद्वानों के लिए ही बोध्यगम्य है। इसलिए साधारण लोगों के लिए पूर्व की रचना के बाद द्वादशांगी की रचना की जाती है।280 दशवैकालिकवृत्ति और प्रभावक चरित्र के अनुसार पूर्वो की भाषा संस्कृत थी। गणधर जब द्वादशांगी की रचना करते हैं, तब आचार आदि के क्रम से उनकी रचना और स्थापना होती है। दूसरा मत यह है कि तीर्थंकरों ने सर्वप्रथम पूर्वगत को व्याकृत किया और गणधरों ने भी सबसे पहले पूर्वगत की ही रचना की और बाद में आचार आदि की रचना हुई। यह मत अक्षर रचना की अपेक्षा से है, किन्तु स्थापना की अपेक्षा और पाठ्यक्रम की अपेक्षा आचारांग पहले है। 2 पंडित बेचरदासजी पूर्व का अर्थ पूर्व परम्परा से चला आया हुआ ज्ञान अर्थात् तेवीसवें तीर्थंकर से चौवीसवें तीर्थंकर की परम्परा में आगत अर्थ करते हैं। लेकिन यह अर्थ उचित प्रतीत नहीं होता है। पूर्वधरों को श्रुतकेवली भी कहा जाता है। वे जिन नहीं होते हुए भी जिन (तीर्थंकर) के समान होते हैं 183 चतुदर्शपूर्वधारी (श्रुतकेवली) जो कुछ भी कहते हैं, वह किसी भी तरह द्वादशांगी से विरुद्ध नहीं होता। उनमें और केवली में इतना ही अन्तर होता है कि जहाँ केवली समग्र तत्त्व को प्रत्यक्ष जानते हैं किन्तु श्रुतकेवली परोक्ष रूप से श्रुतज्ञान द्वारा जानते हैं।84 इसके अलावा दशपूर्वधारी आदि भी नियमतः सम्यग्दृष्टि होते हैं।85 अतः इनके ग्रंथों को भी आगम की संज्ञा दी जाती है। पूर्वगत के प्रकार पूर्वगत (पूर्व) के चौदह प्रकार हैं - 1. उत्पाद पूर्व 2. अग्रायणीय पूर्व 3. वीर्यप्रवाद पूर्व 4. अस्तिनास्ति-प्रवाद पूर्व 5. ज्ञानप्रवाद पूर्व 6. सत्यप्रवाद पूर्व 7. आत्मप्रवाद पूर्व 8. कर्मप्रवाद पूर्व 9. प्रत्याख्यानप्रवाद पूर्व 10. विद्यानुप्रवाद पूर्व 11. अवन्ध्य (कल्याणनामधेय) पूर्व 12. प्राणायु (प्राणावाय)पूर्व 13. क्रियाविशाल पूर्व और 14. लोक-बिन्दुसार पूर्व। 378. धवला पु.1, सू. 1.1.2 पृ. 110-112, धवला पु. 9, सू. 4.1.45 पृ. 207-208, गोम्मटसार जीवकांड गाथा 361-362 379. गोम्मटसार जीवकांड गाथा 363-364 पृ. 603 380. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 551 381. प्रभावक चरित्र श्लोक 113-114 382. जम्हा तित्थपवत्तणकाले गणधराण सव्वसुत्ताधारत्तणतो पुव्वं पुव्वगतसुतत्थं भासति तम्हा पुव्वंति भणिता, गणधरा पुण सुत्तरयणं करेन्ता आयाराइकमेण रएंति ठवेंति य, अण्णयरियमतेणं पुव पुव्वगतसुत्तत्थो पुव्वं अरहता भासितो गणहरे वि पुव्वगतं सुत्तं चेव पुव्वं रइतं पच्छा आयाराए। - नंदीचूर्णि पृ. 111 383. समणस्स भगवओ महावीरस्स तिन्नि सया चोद्दसपुवीणं अजिणाणंजिणसंकासाणं सव्वक्खरसन्निवाईणं जिणो विव अवितहं वागरमाणाणं उक्कोसिया चोद्दसपुव्वीणं संपया होत्था। - दसाओ (दशाश्रुतस्कंध) परिशिष्ट, सू. 97 384. केवलविन्नयत्थे, सुयनाणेणं जिणो पगासेइ। सुयनाणकेवली वि हु, तेणवऽत्थे पगासेइ। -बृहत्कल्पभाष्य, गाथा 966 385. चोद्दस दस य अभिन्ने, नियमा सम्मं तु सेसए भयणा। मति-ओहिविवच्चासो, वि होति मिच्छे ण उण सेसे। -बृहत्कल्पभाष्य गाथा 132
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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