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________________ विशेषावश्यक भाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन 2. द्वितीय मान्यता यह मान्यता आवश्यकसूत्र को गणधर प्रणीत मानने की है, जो कब से शुरु हुई यह तो ज्ञात नहीं होता है, लेकिन सर्वप्रथम यह परम्परा आवश्यकनिर्युक्ति में दिखाई दी है । निर्युक्तिकार के अनुसार सामायिकादि अध्ययनों की रचना भगवान् के उपदेश के आधार पर गणधरों ने की है। आचार्य भद्रबाहु ने भी इस बात को स्पष्ट करते हुए कहा है कि इसमें मैं जो कुछ कह रहा हूँ, वह परम्परा से प्राप्त हुआ है।' इसी बात का समर्थन जिनभद्रगणि ने किया है।" निर्युक्ति व भाष्य के मत का अनुसरण टीकाकार आचार्य हरिभद्र, मलयगिरि मलधारी हेमचन्द्र ने भी किया है एवं आवश्यकसूत्र की इस प्राचीन परम्परा का वर्णन अनुयोगद्वार में मिलता है। वहाँ भी आवश्यक के अध्ययनों के विषय में आवश्यक नियुक्ति में आगत 'उद्देशादि' प्रदर्शक गाथाएं उसी रूप में हैं। आचार्य हरिभद्र ने आवश्यक टीका में आवश्यक निर्युक्ति के मत का अनुसरण किया है, इसी प्रकार मलधारी हेमचन्द्र ने भी इसी मत का समर्थन किया है। अतः आवश्यक सूत्र गणधर प्रणीत है, यह परम्परा टीकाकारों को मान्य है तथा यह परम्परा आवश्यकनियुक्ति जितनी ही प्राचीन भी है। नंदीसूत्र के चूर्णिकार जिनदासगण और टीकाकार हरिभद्र दोनों ने 'अथवा' कहकर इस मान्यता से भिन्न जो दूसरी मान्यता थी कि गणधर रचित द्वादशांगी है और स्थविर प्रणीत अंगबाह्य है, का भी कथन किया है, जिसके अनुसार अंगबाह्य आवश्यकसूत्र स्थविर प्रणीत सिद्ध होता है संक्षेप में कहें तो प्राचीन मान्यता के अनुसार आवश्यक की अंगबाह्य होने से गणधर प्रणीत नहीं माना जाता था, किन्तु बाद में आचार्य इसे भी गणधर कृत मानने लगे। साथ ही यह भी मान्यता रही कि सर्वप्रथम आवश्यक सूत्र ही गणधर कृत है, बाद में अन्य अंगबाह्य आगमों को भी गणधर कृत स्वीकार किया जाने लगा। इसका भी कारण यह होगा कि आगम ग्रंथों में अनेक स्थलों पर जहाँ-जहाँ भगवान् महावीर के शिष्यों के प्रायः श्रुत का वर्णन आता है वहाँ-वहाँ उन्होंने 'सामायिकादि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया' ऐसा वर्णन मिलता है। सामायिक, यह आवश्यक का प्रथम अध्ययन है अतः अध्ययन क्रम में पहला स्थान होने से ग्यारह अंगों में पहला है, अतः पं. दलसुख मालवणिया आवश्यक को गणधर कृत मानते हैं । आवश्यक नियुक्ति में सामायिक अध्ययन के विषय में उल्लेख है कि यह अध्ययन गुरुजनों के द्वारा उपदिष्ट और आचार्य परम्परा द्वारा आगत है । 24 जिनभद्रगणि और मलधारी हेमचन्द्र ने गुरुजन का अर्थ जिन, तीर्थंकर और गणधर किया है।" तीर्थस्थापना के प्रथम दिन भी आवश्यक तो जरूरी ही है। इसलिए तीर्थंकर आवश्यकसूत्र का अर्थरूप में निरूपण करते हैं एवं गणधर इसकी रचना सूत्ररूप में करते हैं। गणधर रचित प्रत्येक सूत्र कालिक होता है। किन्तु आवश्यक उभयकाल करने का होने से इसकी अलग व्यवस्था दी गयी है। 19. सामाइयनिज्जुत्तिं वोच्छं उवएसियं गुरुजणेणं । आयरियपरंपरएण, आगयं आणुपुव्वीए । आवश्यकनियुक्ति गाथा 87, विशेषावश्यक भाष्या गाथा 1080 20. (अ) अनंगप्रविष्टमावश्यकादि, ततोऽर्हत्प्रणीतत्वात् । - हारिभद्रीय पृ. 78, मलयगिरि पृ. 193 (ब) इह चरणकरणक्रियाकलापतरूमूलकल्पं सामायिकादिषडध्ययनात्मक श्रुतस्कंधरूपमावश्यकं तावदर्थतस्तीर्थकरैः सूत्रतस्तु गणधरैविरचितम्। मलधारी हेमचन्द्र बृहद्वृत्ति पृ. 1 [4] - 21. गणधरवाद, प्रस्तावना, पृ. 8 22. नंदीचूर्णि पृ. 78, हारिभद्रीय पृ. 78, मलयगिरि पृ. 193, जैन तर्कभाषा पृ. 23 23. गणधरवाद, प्रस्तावना पृ० 9 24. आवश्यक निर्युक्ति गाथा 87, विशेषावश्यक भाष्या गाथा 1080 25. जिण गणहरगुरुदेसियमावरियपरं परागयं तत्तो विशेषावश्यकभाष्य गावा 1081 एवं वृत्ति ।
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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