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________________ प्रथम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति : एक परिचय जैनागम के मुख्य रूप से अर्थागम और सूत्रागम ये दो भेद किये जाते हैं। अनुयोगद्वार के अनुसार तीर्थंकर अर्थागम के कर्ता हैं। उस अर्थागम के आधार से गणधर सूत्रों की रचना करते हैं इसलिए सूत्रागम या शब्दागम के प्रणेता गणधर कहे जाते हैं। आवश्यकसूत्र अंगबाह्य आगमों में परिगणित है, अत: इसकी रचना को लेकर दो मान्यताएं उभर कर आयी हैं - प्रथम मान्यता के अनुसार आवश्यकसूत्र तीर्थंकरों की अर्थरूप वाणी के आधार पर स्थविर आचार्य द्वारा रचित है। द्वितीय मान्यता इसे गणधरकृत स्वीकार करती है। 1. प्रथम मान्यता - अनुयोगद्वारसूत्र में तीर्थंकरों को आचारांग से लेकर दृष्टिवाद पर्यन्त बारह अंगों का प्रणेता बताया है। किन्तु यह कथन अर्थरूप आगम की दृष्टि से हुआ है। सूत्र रूप द्वादशांगी की रचना गणधरों ने की है। नंदीसूत्र में भी ऐसा उल्लेख है। षट्खण्डागम की धवला टीका" और कसायपाहुड की जयधवला टीका में द्वादशांगी और चौदहपूर्व के सूत्रकर्ता के रूप में गणधर गौतमस्वामी को मान्य किया गया है। इस मान्यता के समर्थन में आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में कहा है कि जो आगम गणधरकृत हैं, वे अंगसूत्र और जो आगम स्थविर कृत हैं, वे अंगबाह्य कहलाते हैं। बृहत्कल्पभाष्या, विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार आगम के रचनाकार तीर्थंकर, गणधर एवं स्थविर आचार्य तीनों है। आवश्यक सूत्र अंग बाह्य है, अतः यह स्थविर कृत है। यही प्राचीन परम्परा है। आचारांगटीका के अनुसार 'आवश्यकान्तर्भूतः चतुर्विंशतिस्तव आरातीयकालभाविना भद्रबाहुस्वामिनाऽकारि'16 आवश्यक सूत्र के कुछ अध्ययन श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु आदि एवं परवर्ती अनेक स्थविर आचार्यों की ज्ञान निधि के प्रतिफल रूप हैं। अतः निश्चय ही इसका वर्तमान रूप भगवान् महावीर के समय से ही प्रारम्भ होकर वि. सं. 5-6 शताब्दी तक पूर्णता को प्राप्त हो चुका था। इस प्रकार आवश्यक के रचनाकार गणधर गौतम, भद्रबाहु आदि अनेक आचार्य हुए हैं। पं. सुखलाल संघवी ने इसे ई. पू. चौथी शताब्दी के प्रथम पाद तक रचित माना है। अत: इसकी प्राचीनता स्वतः ही सिद्ध हो जाती है, क्योंकि नियुक्तिकार भद्रबाहु ने सर्वप्रथम नियुक्ति की रचना इसी सूत्र पर की है। ऐसी अवस्था में मूल 'आवश्यकसूत्र' अधिक से अधिक उनके कुछ पूर्ववर्ती या समकालीन किसी अन्य श्रुतधर का रचित हो सकता है। पं. सुखलाल संघवी ने आवश्यक के कर्त्ता के सम्बन्ध में अपना निष्कर्ष लिखते हुए कहा है कि "जो कुछ हो, पर इतना निश्चित जान पड़ता है कि तीर्थंकर के समकालीन स्थविरों से लेकर भद्रबाहु के पूर्ववर्ती या समकालीन स्थविरों तक में से ही किसी की कृति आवश्यक सूत्र है।"18 9. अ) अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । सासणस्स हियट्ठाए तओ सुत्तं पवत्तई। -आवश्यकनियुक्ति गाथा 92 ब) सुत्तं गणधरगथिदं तहेव पत्तेयबुद्धकहयिं च। सुदकेवलिणा कहियं अभिण्णदसपुव्विगधिदं च। - भगवती आराधना गाथा 33 स) पुणो तेणिंदभूदिणा भावसुदपज्जयपरिणदेण बारहंगाणं चौद्दपुव्वाणं च गंथाणमेक्केण चेव मुहुत्तेण कमेण रयणा कदा। तदो भाव-सुदस्स अत्थ पदाणं च तित्थयरो कत्ता। तित्थयरादो सुद-पज्जाएण गोदमो परिणदो त्ति दव्व-सुदस्स गोदमो कत्ता। तत्तो गंथ-रयणा जादेत्ति। - षट्खण्डागम (धवला) पु. 1. सू. 1.1.1, पृ० 65, द) तदो तेण गोअमगोत्तेण इंदभूदिणा अंतोमुहुत्तेणावहारियदुवालसंगत्थेण तेणेव कालेण कयदुवालसंगगंथरयणेण गुणेहि सगसाणस्स सुहम्माइरियस्स गंथो वक्खाणिदो। - कसायपाहुड (जयधवल) भाग 1, गाथा 1, पृ. 76 10. नंदी सूत्र, सूत्र 76, पृ. 152 11. षट्खण्डागम (धवला) पु. 1. सू. 1.1.1, पृ०65 12. कसायपाहुड (जयधवल) भाग 1, गाथा 1, पृ. 76 13. तत्त्वार्थ भाष्य 1.20 14. बृहत्कल्पभाष्य गा० 144 15. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 550 16. आचारांगटीका पृ. 56 17. दर्शन और चिन्तन भाग 2, पृ. 194-196 18. दर्शन और चिन्तन भाग 2, पृ. 197
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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