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________________ [216] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण (सप्तम शती) का कथन है कि 'तं तेण तओ तम्मि व सुणेइ सो वा सुअं तेण' अर्थात् उसको, उसके द्वारा, उससे होने से या उसके होने पर आत्मा द्वारा सुना जाता है या आत्मा सुनता है, उससे वह 'श्रुत' कहा जाता है। जिनदासगणि ने भी श्रुतज्ञान की ऐसी व्युत्पत्ति दी है। मलधारी हेमचन्द्र (द्वादश शती) ने श्रृतज्ञान का अर्थ किया है - 'तं तेण' जो आत्मा द्वारा सुना जाए, उस शब्द को श्रुत कहते हैं अथवा जिससे सुना जाय, या जिसके होने से अर्थात् श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम होने से सुना जाय, वह श्रुत कहलाता है। अथवा 'सुणेइ सो वा' जो सुनता है, वह आत्मा श्रुत है। शब्द श्रुत-ज्ञान का कारण है और श्रुतज्ञानावरणीय का क्षयोपशम भी ज्ञान में हेतु है तथा ज्ञान व आत्मा का कथंचित् अभेद होने से ज्ञान को श्रुत कह दिया जाता है, वह श्रुतज्ञान कहलाता है। शांत्याचार्य के अनुसार - जो सुना जाता है वह श्रुत-शब्द है। शब्द द्रव्य श्रुत ही है। जब शब्द को सुना जाता है, बोला जाता है, पुस्तक आदि में अक्षर के रूप में चक्षु इन्द्रिय से पढ़ा जाता है अथवा शेष इन्द्रियों से अवगृहीत अर्थ का पर्यालोचन किया जाता है, उस समय जो अक्षरानुसारी/ श्रुतानुसारी विज्ञान उत्पन्न होता है, वह भावश्रुत है और वही यहाँ श्रुत शब्द से अभिहित है। मलयगिरि (त्रयोदश शती) ने श्रुतज्ञान का अर्थ करते हुए कहा है कि - वाच्य-वाचक के सम्बन्धज्ञान पूर्वक शब्द से सम्बद्ध अर्थ को जानने का जो हेतु है, वह श्रुतज्ञान है। जैसे अमुक आकार वाली वस्तु है, जो जलधारण आदि अर्थक्रिया में समर्थ है। वह घट (वाचक) शब्द के द्वारा वाच्य है, इत्यादि। जिस ज्ञान में कालिक- साधारण, समान परिणाम मुख्य होता है, जो शब्द और अर्थ के पर्यालोचन के अनुसार होता है, जो इन्द्रिय और मन के निमित्त से होता है, वह श्रुतुज्ञान है।" उपाध्याय यशोविजय (अष्टादश शती) के अनुसार - जो ज्ञान इन्द्रिय और मनोजन्य होते हुए श्रुत का अनुसरण करे वह श्रुतज्ञान कहलाता है। दिगम्बर आचायों की दृष्टि में श्रुतज्ञान का लक्षण - आचार्य गुणधरानुसार (द्वितीय-तृतीय शती) - मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ का अवलंबन लेकर जो अन्य अर्थ का ज्ञान होता है, वह श्रुतज्ञान कहलाता है। अमृतचन्द्रसूरि के वचनानुसार - मतिज्ञान के बाद अस्पष्ट अर्थ की तर्कणा को लिये हुए जो ज्ञान होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं पूज्यपाद (पंचम-षष्ठ शती) के अनुसार - पदार्थ जिसके द्वारा सुना जाता है, जो सुनता है या सुनना मात्र श्रुत कहलाता है। 'श्रुत' शब्द सुनने रूप अर्थ में मुख्यता से निष्पादित है तो भी रूढ़ि से उसका वाच्य कोई ज्ञानविशेष है, वही श्रुतज्ञान है। 15. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 81 16. तहा तच्छृणोति, तेण वा सुणेति, तम्हा वा सुणेति, तम्हि वा सुणेतीति सुतं। - नंदीचूर्णि पृ. 20 17. मलधारी हेमचन्द्र, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 81 की बृहवृत्ति, पृ. 46 18. उत्तराध्ययन शांत्याचार्य बृहद्वृत्ति, पृ. 556-557 19. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 65 20. तत्रेन्द्रियमनोनिमित्तं श्रुतानुसारि च श्रुतज्ञानम्। - जैनतर्कभाषा पृ. 6 21. मदिणाणपुव्वं सुदणाणं होदि मदिणाणविसयकयअट्ठादो पुधभूदट्ठविसयं। कसायपाहुडं, पृ. 38 22. मतिपूर्व श्रुतं प्रोक्तमविस्पष्टार्थतर्कणम् । तत्त्वार्थसार, प्रथम अधिकार, गाथा 24 पृ. 9 23. सर्वार्थसिद्धि 1.9 पृ. 67 24. सर्वार्थसिद्धि 1.20 पृ. 85
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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