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________________ विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन मति और श्रुतज्ञान में भिन्नता को जिनभद्रगणि ने सात प्रकारों से सिद्ध करते हुए इनका विस्तार से उल्लेख किया है। जिनभद्रगणि ने हेतु और फल की अपेक्षा मति और श्रुत में भेद स्पष्ट करते हुए कहा है कि भावश्रुत मतिपूर्वक होता है न कि द्रव्यश्रुत । द्रव्यश्रुत को भावश्रुत का कारण सिद्ध किया है। मतिज्ञान के पूर्व द्रव्यश्रुत हो सकता है । अत: नंदी सूत्र में 'ण मति सुयपुव्विया' में भावश्रुत का निषेध किया गया है। जन सामान्य में यह धारणा प्रचलित है कि श्रोत्रेन्द्रिय से सम्बन्धित ज्ञान श्रुतज्ञान तथा शेष इन्द्रियों से सम्बन्धित ज्ञान मतिज्ञान है। इसका समाधान करते हुए जिनभद्रगणि ने कहा है कि श्रुतानुसारी से होने वाला अक्षरलाभ ही श्रुत है, शेष मतिज्ञान है। उन्होंने द्रव्यश्रुत और भावश्रुत का विस्तार से वर्णन किया है। वक्ता श्रुतोपयोग रहित जिन पदार्थों का कथन करता है, वह शब्दमात्र होने से द्रव्यश्रुत है, और जिन्हें श्रुत-बुद्धि से केवल पर्यालोचित ही करता है, कथन नहीं करता है, वह भावश्रुत है। कुछ आचार्यों ने मतिज्ञान कारण होने से वल्कल (छाल) और श्रुतज्ञान कार्य होने से शुम्ब रूप स्वीकार किया है। जिनभद्रगणि कहते हैं कि इससे भावश्रुत का अभाव प्राप्त होता है। अतः मति वल्कल और भावश्रुत शुम्ब के समान है। इस प्रकार का उल्लेख जिनभद्रगणि की विद्वत्ता और सूक्ष्मदृष्टि को प्रकट करता है । कुछ आचार्य मतिज्ञान को अनक्षर और श्रुत को अक्षर एवं अनक्षर रूप उभयात्मक स्वीकार करते हैं। जिनभद्रगणि के अनुसार मति और श्रुत दोनों उभयात्मक हैं, लेकिन द्रव्याक्षर की अपेक्षा श्रुतज्ञान साक्षर है, मतिज्ञान अनक्षर है और इसी अपेक्षा से दोनों में अन्तर घटित हो सकता है। जबकि जिनदासगणि श्रुत को साक्षर और मति को अनक्षर मानते हैं, हरिभद्र और मलयगिरि ने श्रुत को साक्षर और मति को उभयात्मक माना है । मूक और अमूक की अपेक्षा मति - श्रुत में प्रमाण सहित अन्तर स्पष्ट किया है । उमास्वाति ने मतिज्ञान को इन्द्रिय और मन के निमित्ति तथा श्रुतज्ञान को मनोनिमित्तक माना है, जबकि जिनभद्रगणि ने उमास्वाति के विपरीत मति और श्रुत दोनों में इन्द्रिय और मन का निमित्त स्वीकार किया है। प्रस्तुत अध्याय में दोनों के मतों का समन्वय विद्यानंद के अनुसार किया गया है कि मति साक्षात् इन्द्रिय मनोनिमित्त है, जबकि श्रुत साक्षात् मनोनिमित्त है और परम्परा से इन्द्रियमनोनिमित्तक है। [208] प्रायः विद्वानों का मत है कि श्रुतज्ञान अनिन्द्रिय अर्थात् मन से सम्बन्धित है, लेकिन अर्वाचीन विद्वान् पं. कन्हैयालाल लोढ़ा ने इसका निषेध किया है कि एकेन्द्रिय में मन नहीं होता है, लेकिन वहाँ श्रुत अज्ञान का सद्भाव माना गया है। इसलिए यह उचित नहीं है, जिनभद्रगणि के अनुसार मतिज्ञान द्रव्यश्रुत में परिवर्तित होता है, इसको स्वीकार किया गया है। श्रुतज्ञान, मतिपूर्वक होता है किन्तु मतिज्ञान, श्रुतपूर्वक नहीं होता है, इसके निम्नलिखित कारण ध्यान में आते हैं - 1. ग्रहण पहले जीव, वाचक शब्द को या वाच्य पदार्थ को ग्रहण करता है। फिर उन दोनों में जो वाच्य वाचक संबंध है, उसकी पर्यालोचना पूर्वक शब्द व अर्थ को जानता है । वाच्य पदार्थ या वाचक शब्द को ग्रहण करना - मतिज्ञान है और वाच्य वाचक सम्बन्ध पर्यालोचना पूर्वक शब्द व अर्थ को जानना - श्रुतज्ञान है । अतः श्रुतज्ञान होने के लिए पहले मतिज्ञान का होना अनिवार्य है । इसलिए मतिज्ञान, श्रुतज्ञान का कारण है, परन्तु मतिज्ञान होने के लिए, पहले श्रुतज्ञान का होना अनिवार्य नहीं है। अतएव श्रुतज्ञान, मतिज्ञान का कारण नहीं है। 2. तीक्ष्णता एवं विकास- यदि किसी को श्रुतज्ञान को तीक्ष्ण एवं विकसित करना है, तो उसका मतिज्ञान तीक्ष्ण एवं विकासित होना आवश्यक है। अनुप्रेक्षा, चिन्तन, तर्कणा शक्ति का -
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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