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________________ तृतीय अध्याय - विशेषावश्यक भाष्य में मतिज्ञान 8. भाव द्वार औदयिक आदि पांच भावों में से मतिज्ञान क्षायोपशमिक भाव में ही होता है । 9. अल्पबहुत्व द्वार मति आदि पांच ज्ञानों में किस ज्ञान वाले मतिज्ञान से कम ज्यादा हैं, इसका उल्लेख अल्पबहुत्व द्वार में आगे किया है। मतिज्ञान वाले कम से कम 1-2-3 अथवा उत्कृष्ट असंख्याता होते हैं। यह उनसे प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से सर्व जीव से थोड़े ही है। उनसे पूर्वप्रतिपन्न मतिज्ञानी जघन्य पदवाले प्रतिपद्यमान मतिज्ञानी से असंख्यातगुणा उनसे उत्कृष्ट पदवला पूर्वप्रतिपन्न विशेषाधिक होते हैं 41 [207] दूसरी अपेक्षा से अल्पबहुत्व - दूसरे ज्ञान वालों की अपेक्षा मतिज्ञानी जीव अनन्तवां भाग जितने है। शेष ज्ञान रहित जीवों की अपेक्षा प्रतिपद्यमानी मतिज्ञानी थोडे हैं और पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से असंख्यातगुणा हैं। पांचों ज्ञानों की अपेक्षा से अल्पबहुत्व सबसे थोड़े मनः पर्यवज्ञानी, उनसे अवधिज्ञानी असंख्यात गुणा, उनसे मति श्रुत ज्ञानी परस्पर तुल्य विशेषाधिक, उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुणा । उनसे समुच्चय ज्ञानी विशेषाधिक । अज्ञान-सब से थोड़े विभंगज्ञानी, उनसे मति श्रुत अज्ञानी परस्पर तुल्य अनन्तगुणा । ज्ञान व अज्ञान दोनों सबसे थोड़े मनः पर्यवज्ञानी, उनसे अवधिज्ञानी असंख्यात गुणा, उनसे मति श्रुतज्ञानी परस्पर तुल्य विशेषाधिक, उनसे विभंगज्ञानी असंख्यातगुणा, उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुणा। उनसे समुच्चय ज्ञानी विशेषाधिक। उनसे मति, श्रुत अज्ञानी परस्पर तुल्य अनन्तगुणा । - गति आदि के भेद से अल्पबहुत्व - सबसे थोड़े मतिज्ञानवाले मनुष्य, उनसे असंख्यातगुणा नारकी, उनसे तिर्यंच असंख्यात गुणा और उनसे देव मतिज्ञानी असंख्यात गुणा अधिक हैं। इस प्रकार सभी जगह अल्पबहुत्व का विचार कर लेना चाहिए 1542 समीक्षण इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है। जिनभद्रगणि ने मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्दों में से मति, प्रज्ञा, आभिनिबोधिक और बुद्धि को वचनपर्याय के रूप में तथा ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संख्या और स्मृति को अर्थपर्याय के रूप में स्वीकार किया है। दूसरी अपेक्षा से मति, प्रज्ञा, अवग्रह, ईहा, अपोह आदि सभी मतिज्ञान की वचनपर्याय रूप हैं और इन शब्दों से मतिज्ञान के कहने योग्य भेद अर्थपर्याय रूप हैं। इस प्रकार का उल्लेख जिनभद्रगणि का वैशिष्ट्य है। 541. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 441 542. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 442 जिनभद्रगणि ने अवग्रह में ही सम्पूर्ण मतिज्ञान का ग्रहण कर लिया है। जैसे कि अवग्रह अर्थात् अर्थ को ग्रहण करना है, वैसे ही ईहा, अवाय और धारणा भी किसी न किसी अर्थ को ग्रहण करते हैं इसलिए वे सब सामान्य रूप से अवग्रह ही हैं। इसी प्रकार ईहा, अपाय और धारणा में सम्पूर्ण मतिज्ञान का समावेश हो जाता है । यह उल्लेख जिनभद्रगणि की विशिष्टिता को दर्शाता है।
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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