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________________ [128] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन के लिए आभिनिबोधिक शब्द का प्रयोग होता था। परन्तु नंदीसूत्र में मतिज्ञान के लिए आभिनिबोधिक और मति दोनों शब्दों का प्रयोग, षखण्डागम में आभिनिबोधिक शब्द का ही प्रयोग तथा तत्त्वार्थसूत्र में केवल मति शब्द का ही प्रयोग हुआ है और इसके बाद वाले अधिकतर आचार्य जैसेकि जिनभद्रगणि, जिनदासगणि, हरिभद्रसूरि आदि ने दोनों शब्दों का प्रयोग किया है। इस प्रकार मतिज्ञान के लिए दोनों शब्दों का प्रयोग प्रचलित रहा है, लेकिन अन्ततः मति शब्द ही अधिक प्रचलन में रह गया है। हरिभद्र ने इसको स्पष्ट करते हुए कहा है कि अवग्रह आदि रूप वाला आभिनिबोधिक ज्ञान मतिज्ञान ही है। ___ मलयगिरि स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मति शब्द का प्रयोग ज्ञान और अज्ञान दोनों के लिए होता है, लेकिन आभिनिबोधिक शब्द का प्रयोग मात्र ज्ञान के लिए ही होता है। आभिनिबोधिक अज्ञान शब्द का कहीं भी प्रयोग नहीं मिलता है, उसके स्थान पर मति अज्ञान शब्द का प्रयोग हुआ है। मति शब्द आभिनिबोधिक के समान अर्थ वाला है। औत्पत्तिकी आदि मति की प्रधानता के कारण आभिनिबोधिक ज्ञान मतिज्ञान भी कहलाता है। मति एवं श्रुत ज्ञान में भेद जैन परम्परा में मति और श्रुत के भेद-अभेद के सम्बन्ध में दो मत मिलते हैं। प्राय: आचार्यों का मानना है कि ये दोनों भिन्न हैं। जबकि कतिपय आचार्य मति-श्रुत को अभिन्न मानते हैं। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की युगपत्ता नंदी सूत्र के अनुसार जहाँ मतिज्ञान होता है, वहाँ श्रुत ज्ञान होता है तथा जहाँ श्रुतज्ञान होता है, वहाँ मतिज्ञान होता है अर्थात् जिस जीव को मतिज्ञान होता है, उसे नियम से श्रुत ज्ञान होता है और जिस जीव को श्रुतज्ञान होता है, उसे नियम से मतिज्ञान होता है। अतः ये दोनों ज्ञान अन्योन्य अनुगत हैं अर्थात् ये दोनों यद्यपि लब्धि की अपेक्षा एक जीव में एक साथ नियम से पाये जाते हैं, फिर भी ये दोनों स्वरूप से एक नहीं हैं, क्योंकि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है, पर मति, श्रुतपूर्वक नहीं होती, इस कारण मति और श्रुत दोनों भिन्न-भिन्न हैं। मति और श्रुत की भिन्नता के कारण भगवतीसूत्र में ज्ञान के वर्णन में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का अलग-अलग वर्णन है। दोनों ज्ञानों के आवरण रूप मतिज्ञानावरणीय और श्रुतज्ञानावरणीय कर्म अलग-अलग हैं। इसी प्रकार स्थानांग में आचार्य (गणि) की आठ सम्पदाओं में मति सम्पदा और श्रुत सम्पदा का भी अलग-अलग उल्लेख है। इस प्रकार आगमों में जहाँ भी ज्ञान का वर्णन हुआ है वहाँ पर इन दोनों ज्ञानों का उल्लेख अलग-अलग हुआ है। इससे स्पष्ट होता है कि प्राचीन आगम परम्परा से ही मतिज्ञान और श्रुतज्ञान भिन्न-भिन्न हैं। 78. आवश्यकनियुक्ति गाथा 1, 2, 12, विशेषावश्यकभाष्य गाथा 79, 176, 396 79. मधुकरमुनि, नंदीसूत्र, सूत्र नम्बर 45, 47, 62, 65, 66 80. मधुकरमुनि, नंदीसूत्र 46 81. षट्खण्डागम पु. 13, 5.5.21, 22, 35, 36, 42 82. 'आभिनिबोधिक' विशेषावश्यकभाष्य गाथा 79, 80,81 आदि गाथाओं, 'मतिज्ञान' 85, 88, 94, 96 आदि गाथाओं में 83. नंदीचूर्णि पृ. 22, 51, 53 , हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति, पृ. 23, 52, 54 84. आभिनिबोधिकम्-अवग्रहादिरूपं मतिज्ञानमेव। - हारिभद्रीय नंदीवृत्ति, पृ. 22 85. मलयगिरि नंदीवृत्ति, पृ. 140 86. पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 97 87. भगवती सूत्र, भाग 2, श. 8 उ. 2 पृ. 151 88. भगवती सूत्र, भाग 2, श.9 उ. 31, पृ. 439 89. स्थानांग सूत्र, स्थान 8 पृ. 632
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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