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________________ तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान [127] 7. स्मृति - पहले जाने हुए पदार्थ के स्मरण को 'स्मृति' कहते हैं। यह धारणा का पयार्यवाची शब्द है। 8. मति-श्रुतनिश्रित मतिज्ञान को 'मति' कहते हैं अथवा सूक्ष्म पर्यालोचना को 'मति' कहते हैं अर्थात् अर्थ का बोध होने के बाद स्वयं किसी व्यक्त सूक्ष्म धर्म की आलोचना करने रूप बुद्धि 'मति' है। 9. प्रज्ञा - अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान को 'प्रज्ञा' कहते हैं। यह बुद्धि का पर्यायवाची शब्द है। मतिज्ञानावरण के विशिष्ट क्षयोपशमजन्य वस्तु के अनेक यथार्थ धर्मों की पर्यालोचना को 'प्रज्ञा' कहते हैं। आगमों में प्रज्ञा का प्रयोग लौकिक और अलौकिक दोनों ज्ञान के वाचक के रूप में हुआ है, जैसेकि महापण्ण 'आसुपण्ण'63 'विसुद्धपण्ण'64 "भूमिपण्ण'65 इत्यादि। मतिज्ञान के साथ सर्वप्रथम आवश्यकनियुक्ति में इसका प्रयोग हुआ है। जिनभद्रगणि इसका अर्थ 'मति' तथा हरिभद्र, मलयगिरि आदि ने इसका अर्थ अनेक वस्तुगत धर्मों का आलोचन करती संवित् किया है। जिनभद्रगणि प्रज्ञा और बुद्धि को समानार्थक स्वीकार करते हैं। श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य इसका सम्बन्ध श्रुतनिश्रित मति के साथ जोडते हैं जबकि दिगम्बराचार्य अश्रुतनिश्रित के साथ इसका सम्बन्ध जोड़ते हैं। आवश्यकनियुक्ति, नंदीसूत्र और विशेषावश्यकभाष्य में दिये गये उपर्युक्त पर्यायवाची नामों के अलावा भी अन्य और शब्द हैं जो मतिज्ञान के पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त होते थे, लेकिन बाद वाले ग्रन्थों में उनका प्रयोग अवग्रहादि के पर्यायवाची शब्दों के रूप में होने लगा, इसलिए अवग्रहादि के पर्यायवाची शब्दों के साथ उनका भी उल्लेख किया जाएगा। वितर्क - आगम काल में इसके दो अर्थ मिलते हैं - 1. तर्क के विशुद्धार्थ के रूप में 2. तर्क के पर्याय के रूप में। विर्तक का सम्बन्ध मतिज्ञान के साथ था। लेकिन बाद वाले काल में इसका सम्बन्ध श्रुतज्ञान से स्थापित करके इसका अर्थ ऊह (तर्क) किया गया है।2।। उपर्युक्त शब्दों का प्रयोग मतिज्ञान के लिए होते हुए भी मुख्य रूप से मतिज्ञान के लिए मति और आभिनिबोधिक शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसका उल्लेख निम्न प्रकार से है - मति एवं आभिनिबोधिक शब्द पर विचार आगमिक काल में मति शब्द उच्चज्ञान, विपुलज्ञान और ज्ञानसामान्य4 आदि अर्थों में आगमों में प्रयुक्त हुआ है। सूत्रकृतांग सूत्र में 'अमतीमता 75 'दुम्मती 76 और 'सहसम्मुइए'7 आदि शब्द भी मिलते हैं। इस प्रकार प्राचीन काल में मति शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में होता था तथा मतिज्ञान 62 उत्तराध्ययन सूत्र अ. 3, गाथा 18 63. आचारांगसूत्र श्रु. 1, अ. 8 उ. 1, सूत्रकृतांगसूत्र श्रु. 1. अ. 6 गाथा 25 64. उत्तराध्ययन सूत्र अ. 8, गाथा 20 65. सूत्रकृतांगसूत्र श्रु. 1. अ. 6 गाथा 6, 15, 18 66. आवश्यकनियुक्ति गाथा 12 67. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 397, हारिभद्रीय पृ. 70, मलयगिरि पृ. 187 68. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 398 69. षट्खण्डागम पु. 9, सू. 4.1.18, पृ. 82 70. 'अप्पणो य वितक्काहिं' सूत्रकृतांगसूत्र श्रु. 1, अ. 1, उ. 2, गाथा 21 71. 'इच्चेव मे होति मती वियक्का' सूत्रकृतांगसूत्र श्रु. 2, अ. 6, गाथा 19 72. 'वितर्क श्रुतम्' विशेषेण तर्कणमूहनं वितर्क: श्रुतज्ञानमित्यर्थः। - तत्त्वार्थसूत्र 9.45, सवार्थसिद्धि 9.43 73. 'मतिमत्ता' (मतिमान्-केवलज्ञान)आचारांग, 1.8.2.3 पृ. 255, सूत्र. 1.9.1.63 पृ. 314, सूत्रकृतांग 1.9 गाथा 1,1.11 गाथा] 74. सएहिं सएहिं मतिदंसणेहिं निजूहंति। - भगवतीसूत्र शतक 15, पृ. 436 75. सूत्रकृतांगसूत्र, 1.3.4 गाथा 16 76. सूत्रकृतांगसूत्र, 1.1.2 गाथा 21 77. सूत्रकृतांगसूत्र, 1.8 गाथा 14
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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