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________________ [110] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन ___ 1. शुश्रुषा - गुरुदेव जो कहते हैं उसे विनययुक्त सुनने की इच्छा रखता है, एकाग्र होकर सुनता है। अथवा गुरु महाराज जिस-जिस कार्य के लिए आज्ञा दें, वे सभी अनुग्रह मान कर सुनने की इच्छा करे। 2. प्रतिपृच्छा - सुनते हुए श्रुत में जहाँ शंका हो जाय, वहाँ अति नम्र वचनों से गुरुदेव के हृदय को आह्लादित करता हुआ, 'पूछता' है। अथवा वह कार्य करते समय पुनः पूछे। 3. श्रवण - पूछने पर गुरुदेव जो कहते हैं, उन शब्दों को चित्त को दोलायमान न करते हुए सावधान चित्त होकर सुनता है। अथवा फिर जाने हुए श्रुत को अर्थ सहित सुने। 4. ग्रहण - उन शब्दों को सुन कर उनके अर्थों को समझता है। अथवा श्रुत को सुनकर अवग्रह आदि से ग्रहण करे। 5. ईहा - गुरुदेव के पूर्व कथन और पश्चात् कथन में विरोध न आए, इस प्रकार सम्यक् पर्यालोचना करता है। 6. अपोह - विचारणा के अन्त में गुरुदेव जैसा कहते हैं, तत्त्व वैसा ही है, अन्यथा नहीं - इस प्रकार स्वमति में सम्यक् निर्णय करता है। 7. धारण - वह निर्णय कालांतर तक स्मरण में रहे, इस प्रकार उसकी धारणा (अविच्युति) करता है। 8. सम्यक् अनुष्ठान- आगमों में जो सम्यक् अनुष्ठान बाताये हैं, उनको करता है अर्थात् श्रुतज्ञान में जिसे त्याग करना कहा है, उसका त्याग करता है, जिसकी उपेक्षा करना कहा है, उसकी उपेक्षा करता है तथा जिसका धारण करना कहा है, उसे धारण करता है। सम्यक् अनुष्ठानों से श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होता है और गुरु के चित्त की आराधना करना भी श्रुतज्ञान की प्राप्ति का उपाय है। ज्ञान वृद्धि के नक्षत्र स्थानांग सूत्र के 10वें स्थान में ज्ञान की वृद्धि के दस नक्षत्रों का उल्लेख हैं अर्थात् इन नक्षत्रों का चन्द्रमा के साथ योग होने पर विद्या आरम्भ करना तथा विद्या सम्बन्धी कोई काम शुरू करने से ज्ञान की वृद्धि होती है, यथा - मृगशीर्ष, आर्द्रा, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वभाद्रपदा, पूर्वाषाढा, मूला, अश्लेषा, हस्त और चित्रा। ज्ञान और दर्शन की अन्य दर्शनों में मान्य अवधारणाओं से तुलना जैनदर्शन में ज्ञान को आत्मा का आवश्यक गण एवं लक्षण स्वीकार किया गया है। क्योंकि इसी के आधार पर जीव और अजीव में भेद किया जाता है। अतः जैनदर्शन में ज्ञान की चर्चा आगमों में विद्यमान रही है, जिसे प्रमाणचर्चा का अंग बनाया गया है, जबकि अन्य दर्शनों में प्रायः ज्ञान की चर्चा प्रमाणचर्चा के अन्तर्गत ही की जाती है। चार्वाक दर्शन __ चार्वाकदर्शन मात्र एक प्रत्यक्ष प्रमाण को ही ज्ञान रूप मानता है। चार्वाक कहते हैं कि लौकिक जीवन ही यथार्थ है और इसीलिए लौकिक ज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है और अलौकिकज्ञान की बात ब्राह्मणों का षड्यंत्र मात्र है। अत: इनका मानना है कि यथार्थ ज्ञानप्राप्ति का एकमात्र साधन प्रत्यक्ष है। इनके 261. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 561-564
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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