SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [109] अनुस्वार आदि पूर्ण व्यवस्थित हो तथा क्रियादि का उचित प्रयोग हुआ हो, 8. पूर्णघोष - परावर्तन के समय उदात्त आदि का बराबर उच्चारण हो, 9. कण्ठौष्ठ-विप्रमुक्त - कण्ठ, ओष्ठ आदि से स्पष्ट उच्चारित हो। 10. गुरुवाचनोपगत - जो स्वयं गुरु के द्वारा पढ़ाया हुआ हो।56 श्रुतग्रहण की विधि जिनभद्रगणि के अनुसार शिक्षाग्रहण के सात सूत्र हैं, यथा 1. शिक्षित - सीख लेना, कंठस्थ कर लेना, 2. स्थित - अप्रच्युत बना लेना, हृदय में व्यवस्थित कर लेना, 3. चित्त - शीघ्र याद आ जाना, 4. मित - वर्ण आदि की संख्या-परिणाण जान लेना, 5. परिचित - प्रतिलोम (उत्क्रम) पद्धति से पुनरावर्तन करना, 6. नामसम - अपने नाम की तरहे हमेशा याद रखना, 7. घोषसम - श्रुत देने वाली आचार्य ने जिस प्रकार शब्दों का उदात्त-अनुदात्त-स्वरित का जैसा घोष किया है, वैसा ही ग्रहण करना। श्रुत को सुनने की विधि गुरु जब श्रुत ज्ञान देते हैं, तो उसे किस प्रकार सुने, इसका उल्लेख जिनभद्रगणि ने निम्न प्रकार से किया है-58 - 1. मूक रहे - गूंगे की भांति चुपचाप होकर गुरुदेव के वचन सुने। 2. हुँकार करे - सुनने के पश्चात् गुरुदेव को विनय युक्त तीन बार वन्दना करे। 3. बाढ़कार करेवन्दना के पश्चात् 'गुरुदेव! आपने यथार्थ प्रतिपादन किया' - यों कहे। 4. प्रतिपृच्छा करे - यह 'तत्त्व यों कैसे?' - यों सामान्य प्रश्न करे। 5. विमर्श करे - प्रश्न का सामान्य उत्तर मिलने के पश्चात् विशेष ज्ञान के लिए प्रमाण आदि पूछे। 6. प्रसंग पारायण करे - प्रमाण आदि प्राप्त करके उस तत्त्व प्रसंग का आद्योपान्त सूक्ष्म बुद्धि से पारायण करे। 7. परिनिष्ठ होवे - ऐसा करने पर सातवीं दशा में श्रुतार्थी शिष्य, गुरुदेव के समान ही तत्त्व प्रतिपादन में समर्थ बन जाता है। 'श्रुतज्ञान के लाभों में कौन-से श्रुतज्ञान का लाभ वास्तविक है' यह बताने के लिए जिनभद्रगणि कहते हैं कि आगमसत्थग्गहणं, जं बुद्धिगुणेहिं अट्ठहिं दिटुं। बिंति सुयणाणलंभं, तं पव्वविसारया धीरा 59 अर्थ - सम्यक्श्रुत को भी बुद्धि के आठ गुणों के साथ ग्रहण किया गया हो, तभी वास्तविक श्रुतज्ञान का लाभ हो सकता है, दृष्टिवाद के पाठी तथा जो साधु आदि उपसर्ग आदि के समय भी व्रत-नियमों का दृढ़तापूर्वक पालन करते हैं, उनका कहना है कि आगम शास्त्रों से जीवादि तत्त्वों का सम्यक् (यथार्थ) बोध होना ही श्रुतज्ञान का वास्तविक लाभ है। इसके विपरीत मिथ्याश्रुत के ग्रहण से श्रुतज्ञान का वास्तविक लाभ नहीं प्राप्त हो सकता है। बुद्धि के आठ गुण जो बोध कराता है, वह शास्त्र सामान्य से ज्ञान कहलाता है। ये आगम ही आगमशास्त्र हैं, उनका ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। श्रुत को ग्रहण करने हेतु आगमों में जो बुद्धि के गुण कहे हैं, उसको श्रुतज्ञान कहते हैं। वे निम्न प्रकार से हैं260256. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 853-857 __257. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 851-852 258. मूअं हुंकारं वा, वाढक्कारं पडिपुच्छ वीमंसा। तत्तो पसंगपारायणं च, परिणि? सत्तमए॥ -आवश्यकनियुक्ति गाथा 23, नंदीसूत्र, पृ. 206 विशेषावश्यकभाष्य गाथा 565 259. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 21, नंदीसूत्र, पृ. 206, विशेषावश्यकभाष्य गाथा 558 260. 1 सुस्सूसइ 2 पडिपुच्छइ 3 सुणेइ 4 गिण्हइ य 5 ईहए यावि। 6 तत्तो अपोहए वा 7 धारेइ 8 करेइ वा सम्मं॥ - आवश्यकनियुक्ति गाथा 22, विशेषावश्यकभाष्य गाथा, 559-561, नंदी सूत्र पृ. 206
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy