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________________ (१३०) चतुःप्रभृतिभिः खेटै रेकगृहसमाश्रितः । प्रव्रज्या जायते जन्तो रबलभक्तिरेव हि ॥ ६९६ ॥ धत्ते धर्म धर्मभावमादित्ये कुरुते नहि । बुधशुक्रद्वये तत्र शाक्तऽयं बुध्यते विधिः ॥ ६९७ ॥ भौमे धर्मस्थिते पीडां प्रजानां कुरुते धनाम् । राहौ तत्र स्थिते कान्तामस्पर्शी रूपशालिनीम् ॥ ६९८॥ धर्मश्रद्धा नवा धत्ते पापकर्म करोति च । शनियुक्त स्थिते राहावर्धधर्म करोति च ॥ ६९९ ।। शनौ तत्र स्थिते जैनं मार्गमाश्रयतखिलम् । रवौ राहौ च भौमे च ब्रह्महत्यां करिष्यति ॥ ७०० ॥ तुंगे शुभेक्षिते धर्मे स्वामियुक्त वलाधिके । राजा भवति पुण्याढ्यो वर्णाश्रमविधौ गुरुः ॥ ७०१ ॥ चार प्रभृति के अर्थात चार पांच इत्यादिक ग्रह यदि एक राशि में हों प्रव्रज्यायोग होता है, निर्बल ग्रह हों तो भक्तिमात्र होता है ॥६६६।। धर्म स्थान में धर्म भाव का धारण करता है और सूर्य हो तो वह नहीं करता है और बुध शुक्र हो चन्द्रमा भी हो तो शाक्त होता है ॥६६॥ धर्म स्थान में यदि मंगल हो तो वह प्रजाओं को बहुन पीड़ा करता है, यदि उस स्थान में राहु हो तो वह बहुत सुन्दरी स्त्री का अंग स्पर्श भी नहीं करता ॥६१८॥ और वह धर्म पर श्रद्धा भी नहीं करता है और पाप कर्म करता है, और शनि से युक्त राहु उस स्थान में हो तो आधा धर्म करता है ।।६६६॥ यदि उस स्थान में शनि हो तो जैन का ही मार्ग अवलम्बन करता है, और उस स्थान में यदि रवि, राहु मंगल, हो तो वह ब्रह्म हत्या करेगा ||७००॥ यदि धर्मेश उच्च का बलवान् होकर धर्म स्थान में हो और शुभ ग्रहों से देखा जाता हो तो वे बड़े पुण्यवान् राजा होते हैं और वर्णाश्रम में श्रेष्ठ कहलाते हैं ।।७०१॥ 1. भावे for धर्मे A. 2. शाके for शाक्त A, A1.
SR No.009389
Book TitleTrailokya Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhsuri
PublisherIndian House
Publication Year1946
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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